Меня не убьют в этой жизни - 22

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   Суббота  все-таки  пришла.  Время  странная  штука,  когда  ты  ждешь,  оно  медленно,  как  старая  скрипучая  телега,  а  когда  дождался,  оно  прыгает  в  скоростной  поезд.  Но  суббота  пришла.  Не  было  восьми,   как  в  пустынном  подъезде  двинулся  вверх,  еще  не  проснувшийся  лифт. Я  вскочил,  приоткрыл  дверь  квартиры,  поставил  на пол  прихожей  вазу  с  цветами  и  снова  нырнул  в  постель.  Лежал  с  закрытыми  глазами  и  улыбался.
   - А  я  хотела  зайти  неслышно,  пока  ты  спишь.  Забыл,  что  дал  мне  ключ? – Ольга  стояла,  прислонившись  к  косяку,  прижимала  к  себе  вазу,  и смотрела  на  меня  своими  блестящими  глазами  поверх  цветов.
   - О!  Это  ты!  А  я  и  не  расслышал,  как  ты  вошла! А  ты  уже  и  с  розами! – я  рассмеялся  счастьем,  подошел  к  ней,  взял  вазу,  поставил  ее  на  шкаф,  а  потом  обнял  и  растворился  в  ее  запахе  свежего  утра. Снял  с  нее  платье,  взял  ее  на  руки  и  перенес  в  кровать. Мы  снова  вместе,  комната  что-то  тихо  пела.
   Ольга  лежала  у  меня  на  груди, медленно  водила  ладонью  по  моему  телу,  я  гладил  ее  волосы  и  плечи.  Она  спросила:
   - Ты  был когда-нибудь  маленьким?
   - Кажется,  был.  Точно  был.
   - Расскажи.
   - А  тебе  не  кажется,  что  только  я  о  себе  рассказываю.  Ты  и  так  уже  знаешь  обо  мне  почти  все,  а  я  не  знаю  о  тебе  ничего.
   - Все  узнаешь,  все  расскажу,  мы  с  тобой  ведь  не  последний  день,  а  сейчас  я  первая  тебя  спросила.  Мне  нравится  тебя  слушать.
   - Мое  детство  порвано  на  две  части,  сначала  оно  было  в  Поволжье, а  потом  на  Урале.  Тебе  о  котором?
   - Что  помнишь.
   - Недавно  искал  в  компьютере  снимок  поселка,  в  котором  родился.  На  его  месте  сейчас  лес.  Нет  его  на  карте.  А  я  помню  его  очень  хорошо. Речку  помню,  приток  Свияги,  он  длиной  всего  километров  двадцать,  у  него  и  названия-то  не  было,  в  поселке  его  звали  Черной  речкой.  Вода  в  ней  была  темная,  коричневая,  она  начиналась  в  торфяных  болотах.  Интересно,  где бы  я  потом  ни  жил,  везде  в  окрестностях  находилась  своя  Черная  речка,  их,  наверное,  в  России  тысячи.  А  Свияга - река  известная,  впадает  в  Волгу.  Наш  огород  был  на  берегу  речки,  и  там,  прямо  на  земле,  валялись  плети  огурцов  и  кусты  помидоров.  Почему  об этом  говорю?  Потому,  что,  когда  мы  переехали  сюда,  меня  поразило  то, что  огурцы  на  земле  расти  не  могут,  только  в  теплице. Яркое  детское  удивление.  Папа  вбил  колья  для  мостков  прямо  в  середину  речки,  они  с  мамой  черпали  с  них  воду  ведрами  и  поливали  огород.  Мне  нравилось  сидеть  на  досках,  опустив  ноги  в  воду.  Она  была  ласковая  и  теплая,  такой  теплой  воды  в  здешних  реках  не  бывает  никогда.  Здесь  ведь  и  люди  другие,  суровее,  жестче,  в  основном  пришлые,  часто  изгои.  Там,  в  селах,  люди  живут  веками  из  поколения  в  поколение,  знают  всех,  кто  похоронен  на  кладбище,  свои  корни,  историю  жизни  односельчан,  они  открыты  друг  другу,  сотни  лет  друг  у  друга  на  виду. Там  даже  говор  мягче,  на  «о». 
   - Кольша!  Иди  похлебку  хлёбать, -  кричал  мне  двоюродный  брат  через  улицу,  когда  мы  приходили  в  село,  в  котором  родилась  мама. Это  рядом,  километров  восемь  напрямую.  Это  село  и  сейчас  живет.
   В  том  поселке  у  нас  был  свой  дом,  большой  из  толстых  сосновых  бревен,  в  нем  была  большая  русская  печка  и  одна  дощатая  перегородка,  за  которой  пряталась  кровать  родителей.  Все  остальное  пространство  было  прихожей,  гостиной  и  моей  спальной  одновременно.  В  том  детстве  почти  всегда  лето.  Утром  я  вставал  в  пронизанном  солнцем  доме,  когда  родителей  уже  не  было,  садился  за  стол  перед  печкой.  На  нем,  под  полотенцем,  стояла  литровая  банка  еще  теплого,  парного  молока.  Рядом  граненый  стакан  свежих,  только  что  из-под  сепаратора,  сливок,  и  булка  ржаного,  испеченного  мамой  в  печи,  хлеба. Никогда  в  жизни  потом  у  меня  не  было  таких  замечательных,  таких  вкусных  завтраков.  И  это  еще  не  все!  Надо  же  было  что-то  еще  и  на  сладкое.  И  оно  было.  После  того,  как  убирал  остатки  молока  и  хлеба  в  подпол,  шел  в  чулан,  опускал  руку  в  бочонок  и  доставал  из  него  вкуснейший,  сладчайший  малосольный  огурец.  Хрустя  огурцом,  выходил  на  крыльцо,  в  безгранично  счастливый,  зелено-голубой  мир,  и  начинался  бесконечный,  наполненный  великими  делами  день.
   Слушай,  Ольга,  поехали  ко  мне  в  сад.  В  бане  попаримся,  шашлыки  пожарим.  Ты  любишь  париться?
   - Не  знаю.  Не  знаю,  что  такое  париться.  В  сауне  была,  в  русской  бане  нет.  А  что  дальше?
   - Найдем  чем  заняться.  Разве  в  этом  дело?  Главное,  будем  вдвоем.
   - Нет,  что  потом  у  тебя  было  в  детстве?
   - Ты  об  этом.  Я  успел  закончить  первый  класс,  когда  поселок  решили  закрыть.  Закончился  торф,  а  может,  и  нет,  может,  просто  он  стал  никому  не  нужен,  не  знаю.  Мы  переехали  на  Урал,  куда  к  тому времени  перебрались  все  братья  и  сестры  отца. Несколько  поселков,  центральным  был  самый  старый,  под  названием  Сотрино,  ударение  на  «и».  Но  мы  проехали  чуть  дальше,  в  леспромхоз,  он  как  только  не  назывался,  самое  старое  «220ый  квартал»,  его  упростили  до  короткого «Двадцатый»,  таким  он  для  многих  и  остался.  Потом,  когда  отца  не  стало,  мама  переехала  в  Сотрино,  но  я  там  уже  не  жил,  только  тогда,  когда  приезжал  в  гости.
   Двадцатый  стал  для  меня  подарком  судьбы. В  нем  было  что-то  удивительное,  тогда  мной  не  осознаваемое,  но  мне  кажется,  что  именно  он  заложил  во  мне  постоянное  тревожное  чувство опасения  чего-то    не суметь  рассказать,   и  чего-то  недопонять.  И  еще  беспредельное  уважение  к  тем,  кто  умеет  работать  и  не  боится  физического  труда.  Этот  леспромхоз  собрал  в  себе  все  зло,  что  было   у  советской  власти.
   Он  начал  свою  историю  в  тридцатые  годы.  Первыми  в  тайгу  были  привезены  кулаки  из  Крыма.  Крепкие  мужики,  с  большими  семьями,  они  начали  с  того,  что  построили  себе  дома,  Строили  их  для   себя  и  одновременно  бараки  для  тех,  кого  привезут  еще.  Но  все  это  в  свободное  от  работы  время,  основная  работа  была  валить  лес  для  страны.  Его  в  страну  вывозили  по  железной  дороге,  в  поселке  был  ее  тупик.  Перед  самой  войной  и  в  ее  начале  привезли  поволжских  немцев. Они  тоже   строили  себе  дома,  но  еще  и  лесозавод.  Из  леспромхоза  пошли  доски.  Война  закончилась,  привезли  поляков  и  белорусов  из  западной  Белоруссии.  А  еще  множество  молдаван.  Поселок  разросся,  построили  шпалорезку  и  тарный  цех.  Тут  же  после  войны  открыли  лагерь  для  тех  ребят,  которые  были  угнаны  на  работу  в  Германию  с  оккупированных   территорий.  Два  года  они  жили  в  бараках,  их  проверяли,  не  осталось  ли  у  них  там,  в  рабстве,  порочащих  связей. После  проверки  всех  отпустили,  но  многим  возвращаться  было  некуда,  там  у  них  не  осталось  ни  семьи,  ни  родного  дома.  Они  оставались,  молодые  ребята,  строили  новые  семьи,  заводили  детей,  тоже  строили  дома.  Через  много  лет  прочел  книгу  «Нагрудный  знак  ОСТ»,  содрогнулся  от  того,  что  пережили  эти  мальчишки  и  девчонки  и  пожалел  о  том,  что  не  знал  никого  из  них  в  нашем  поселке,  и  никого  ни  разу  ни  о  чем  не  расспросил.
   В  бараках  появились  «химики»,  поселенцы  после  лагерей.  Вот  этим  сгустком  исковерканных,  изломанных  судеб  и  был  наш  леспромхоз.  Но  мы  разве  знали  обо  всем  этом?  Нет,  конечно.  Мы  все  вместе  учились  в  счастливой  советской  школе,  нам  было  все  равно  кто  какой  национальности,  у нас  даже  понятия  национальности  не  было.  Мы  вместе  с  Генкой  Мюллером  и  братьями  Клепферами  громили  фашистов  во  время  «Зарницы».  С  братьями  близнецами  Качинскими  гоняли  рваный  мяч  на  улице.  В  голову  не  приходило  спросить  друг  у  друга – а кто  у  тебя  отец  или  мать,  и  чем  они  провинились  перед  страной.  Мы  и  не  знали,  что  они  провинились.  Мы  просто  были  пацанами  из  одного  поселка,  и  мне  до  сих  пор  кажется,  что  все  мы  были  русскими.
    Мне  было  совсем  мало  лет,  но  почему-то  хорошо  помню,  как  зимой,  по  вечерам,  к  нам  приходил  «химик»,  читал  отцу  главы  из  книги  о  войне,  которую  он  писал. Как  и  отец,  он был  на  войне  артиллеристом,  но  попал  в  плен,  после  плена  в  лагеря,  а  потом  к  нам  на  поселение.  Они  сидели  с  отцом  в  большой  комнате,  мы  с  братом  в  другой  комнате  должны  были  спать,  но  я  не  спал,  слушал  и  видел  то,  о чем  он  говорил.  О  ревущей  огнем  батарее,  о  страхе,  о  дружбе,  о  костре  в  ночи,  о  запахе  потных,  рвущих  жилы,  лошадей.  Не  тогда,  потом,  я  думал - как  это  так?  Каким  должен  быть  человек?  Какой  веры  в  Родину?  Если  после  того,  как  больше  двадцати  лет  искупать  вину,  писать  о  том,  как  они  защищали  и  любили  эту  Родину.  Думаю,  что  все  эти  люди,  собранные  в  поселке,  умели  отделять  Родину  от  власти,  власть  это  понимала  и  была  настороже.  Мой  отец  был  коммунистом,  вступил  в  партию  на  фронте,  им  всем,  коммунистам,  в  райкоме  выдали  кастеты  на  случай,  если  вдруг  вспыхнет  бунт. Он  не  вспыхнул.
   Я  рано  начал  работать,  с  четырнадцати  лет.  На  кирпичном  заводе,  работал  рядом  с  одной  женщиной.  Маленькая,  худая,  в  чем  душа  держится,  толкала  контейнеры  с  кирпичами,  весом  раз  в  десять  больше,  чем  она. Не  знаю,  сколько  было  ей  лет,  может  тридцать,  может  сорок,  по  виду  далеко  за  пятьдесят,  она  была  кандидатом  наук,  преподавала  литературу  в  МГУ,  потом  вот  трудилась  у  нас.  От  нее  было  трудно  отойти,  когда  она  начинала  говорить.  Красивая,  чистая  русская  речь  звучала  музыкой  в  наших  ушах,  привыкших  к  полукриминальному  местному  сленгу,  зачастую  обогащенному  ненормативной  лексикой.  От  нее  я  заболел  потребностью  держать  в  руках  книгу  и  читать,  читать,  читать.  А  она  спилась  и  умерла, ее  похоронили  на  нашем  кладбище.   Сейчас  уже и  не  найти  ее  могилы.  Может,  еще  кто-то  из   наших  ребят   ее  помнит.  Там,  за  нашим  поселком.  У  нее  никого  не  было.
   У  речки  жила  графиня  Головина. С  ней  жил  сын,  у  него  не  было  одной  руки,  говорили,  что  она  здесь  с  самого  начала,  а  сын  нашел  ее  уже  после  войны,  с  которой  пришел  инвалидом.
   Вот  таким  он  был,  наш  поселок,  тупик  в  тайге.  У  меня  нет  пиетета  ко  всяким  звучным  именам,  оставшимся  в  истории,  которые  якобы  ее  строили.  Для  меня  мою  страну  строили  вот  эти  люди,  прошедшие  огонь  и  воду,  но  до  медных  труб  так  и  не  дошедшие.  Никакому  историку  не  придет  в  голову  пропеть им  славу,  для  них  они -  пыль  у  ног  великих. Знаешь,  иногда  я  сожалею,  что  был  в  ту  пору  ребенком,  ничего  не  знал  о  взрослых,  а  мне  так  хочется  рассказать  об  этих  людях,  с  такой  незавидной  на  наш  взгляд  судьбой.   А  они  такие  настоящие,  такие  цельные,  поэтому  так  хочется  о  них  рассказать.  О  том,  что  у  них  было  внутри,  что  они  думали,  чем  жили  и  знали  ли  они  о  том,  что  такое  счастье.  Не  может  быть,  чтобы  не  знали,  только  оно   не  похоже  на  восторженные  вздохи  Наташи  Ростовой,  на  пьяный  кураж  Долохова,  оно  у них  другое,  выстраданное,  пришедшее  к  ним  через  боль.  Я  люблю  этих  людей,  поэтому  не  люблю  Чехова.  Жил  еще  там,  в  поселке,  когда  прочитал  сборник  его  рассказов,  наполненных  глумлением  над  народом – дураком.  Я  не  видел  вокруг  ни  одного  дурака,  только -  непостижимым  образом  сохранивших  чистоту  души,  умных  людей.  Написать  бы  о  них  книгу,  большую,  на  тысячи  страниц,  а  в  ней  рассказать  о  каждом.  Для  этого  надо  вернуться  назад  и  с  каждым  поговорить.  Только  возвращаться  теперь  некуда,  нет  нашего  «двадцатого»,  он  исчез  с  лица  земли  вместе  с  Советским  Союзом.
   И  я  боюсь.  Боюсь,  что  о  них  не  напишет  никто  никогда.  Их  нет,  они  вычеркнуты,  они  не  интересны  тем,  кто  сейчас  делает  для  нас  нашу  культуру.  Этот  наносной  слой  самовлюбленных,  крикливых,  не  знающих,  есть  ли  люди  за  МКАД,  но  мыслящих  «по-новому,  неординарно»,  имеющих  «свой  взгляд»  делает  все,  чтобы  разучить  людей  мыслить,  страдать  от  сопереживаний,  растлить  страну,  превратить  в  быдло.  Да  они  и  не  скрывают  этого,  открыто  называют  тех,  кто  работает,  быдлом.  Люди - только  они.
    Не  так  давно  посмотрел  несколько  серий  из  сериала  «Мертвые  души».  По  Гоголю,  так  написано.  Надругательство  и  глумление.  Теперь  уже  над  Гоголем.  И  тем,  кто  над  ним  надругался,  нравится  то,  что  они  сделали.  Они  в  восторге  от  себя.  Что  происходит?  Что  происходит  с  русской  душой?  Почему  умирает,  уже  казавшаяся генетической,  русская  интеллигентность?  Почему  победно  шагает  нравственная  пустота?
   - Я  не  знаю,  Коля, - сказала  Ольга.  И  я  понял,  что  забыл  обо  всем  и эти  вопросы  задаю  уже  не  себе,  а  ей.
   - Я  тоже  не  знаю, -  сказал  я. –  Ты,  знаешь,  я  все  еще  болею  за  Родину,  меня  этому  научили  они,   те,  кто  валил  лес  в  нашем  леспромхозе,  а  не  эта  плесень  и  накипь,  которая  захлебывается  о  патриотизме,  а  сама  бежит  из  страны.  Может  быть,  когда-нибудь  Господь  даст  мне  сил  и  разума,  рассказать  об  этих,  потерянных  всеми  людях.  Я  прошу  Его  об  этом.


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