камо грядеши древнерусский гдов

                Сергей  Каширин




ГДОВ
город   героических
ВДОВ
                Древнерусское   предание




 

               








  2013
     Сергей  Каширин




ГДОВ
                город   героических
ВДОВ
                Древнерусское   предание



 

               








  2013

УДК 821
ББК 84 (2Рос – Рус) 6-5
             К 31






       Каширин С.И.
К 31    Гдов -  город  героических  Вдов. Древнерусское  предание.
Изд.  2013.   
    Наряду  со  сказками, сказаниями, легендами  и былинами в  сокровищнице русского  народного устно-поэтического  творчества  немало  еще не записанных исторических сказов  и   преданий , художественное  достоинство  и  величие    которых,  по  словам  М.Ломоносова, не  уступает  широко  популярным  мифам  Древней  Греции. Одно из  таких  преданий, записанное  автором  на основе краеведческих изысканий, и  предлагается  вниманию читателей.   
                УДК 829
                ББК 84(2Рос-Рус)6-5




                О   Каширин С.И.,2013



                История  предков всегда любопытна
                для тех, кто достоин Отечества.
                Карамзин               
               
               

Будем  же  уважать  наше  прошлое,            
                ибо  без  него все  мы  -  как  деревья  без корней.               
                Пикуль

















                ЗАЧИН            
     Древнеримскому   преданию  о  том,  что  Рим  спасли  гуси,  верят  безоговорочно.
     Таким  образом,  эта  забавная  сказочка  стала  прямо-таки  вполне  серьезной  исторической  достоверностью.
     А  вот  к   древнерусскому  преданию  о  том,  что  древнерусский  город  Гдов  спасли  женщины,  относятся  с  этакой  легкой  снисходительной  усмешечкой.
      Почему?
      А  потому.
      Кому,  согласно   старинной  русской  байке,  в  домашнем  очаге  огонь  хранить?
      Бабе.
      А  кому  для  очага  дрова  колоть?
      Бабе.
      А  кому  из  родника  воду  носить?
      Бабе.
      А  кому  морду  бить?
      Бабе.
      А  за  что?
      А  за  то,  что  баба…
      Или,  как  сказали  бы  сегодня,  за  то,  что  слабый  пол.
      Ибо  палка, как  известно, о  двух концах, и  замахивающийся  запросто может получить сдачи. Но  у   сильного  всегда  бессильный  виноват, как  вздохнул   в  одной  из  своих  басен  дедушка  Крылов. О  том  в  истории  мы  тьму  примеров  слышим.  Но…
       Но, чуть-чуть  перефразируя,  заметим,  что  мы   истории  не  пишем,  а  вот  о  том,  как  в   преданьях  говорят. 

                ДЕТИ СОЛНЦА
     --  Ой,  мама,  мамочка,    посмотри,  как  красиво!   Что,  мы   уже  в  раю?                Ласковый,  ангельски  нежный  голос  мальчишки  слил  этот  восхищенный   лепет   с  таким  же  звонким  эхом  в  одно  последнее  слово:
      --  в  раю?..
    И  эхо  как  будто   ответило  на  его  вопрос,  подтвердило:
    --  В  раю!..
    В  книге,  именуемой  книгой  книг,  сказано:
    «В  начале  было  слово…»
    Что  означает:  в  самом  начале.  В  начале  начал.
    То  есть  и  в  начале  этого  поселения,  о  котором  пойдет  речь.  То  бишь  о   нынешнем,  говоря  официально-административным  слогом,  городском  поселении  Гдов.   Правда,  в  книге  книг  таковой  не  упоминается.  Так  сказать,  не  удостоен  столь  высокого  внимания.  Попросту,  по-русски  выражаясь,  рылом  не  вышел.   И  в  первой  древней  русской  летописи, именуемой   Повестью  временных  лет  тоже  такового   названия  днем  с  огнем  не  найти. По  дошедшим  до  нас  слухам,  была  когда-то  и  Гдовская  летопись,   но   --  увы!  --  была,  да  куда-то  когда-то  сплыла.  Посему  по  долетописному  преданию  в  начале  начал  Гдова  и  было  вот  это  слово:
     --  В  раю!
      Как,  например,  при  основании  достославного  Питера,  то  бишь  Санкт-Петербурга,  Петрограда-Ленинграда,  и  опять  Санкт-Петербурга  знаменитое  пушкинское,  приписанное  великим  русским   поэтом  великому  русскому  царю --  императору  Петру  1  Великому.  Пришел,  дескать,  этот  великий  русский  царь-государь-император  на  дикий,  поросший  темнеющим  в  седом  тумане  первобытным  лесом  берег  реки  Невы,  постоял,  подумал  о  чем-то   только  одному  ему  ведомом,  и величественно  простер  свою  властную  державно-государственную  длань  и  непререкаемо  изрек:
     --  Здесь   будет  город  заложен!..
    Таким  вот  макаром. Без  всяких  яких,  коротко  и  ясно.  На  одном  дыхании.   Поскольку  царско-императорское  повеление,  а  не  чье-то  там  сермяжное  хухры-мухры.  Можно  сказать,  без  всяких  там   сопливых  рассусоливаний  высочайший  царско-государственный  Указ.  И,  право,  велик  соблазн  предположить,  что  некто  вот так  же  созидательно  изрек  нечто  подобное  и  на  диком  тогда  еще  берегу  нынешней  реки  Гдовы.  И…
                Прошло  сто  лет, и   юный  град,
                Полнощных  стран  краса  и  диво,
                Из  тьмы  лесов,   из  топи  блат
                Вознесся   пышно,  горделиво…
     Ну  и  все  такое  прочее.  Тем  паче,  что  и  названия  рек  почти  созвучны.  Там  --  Нева,  тут  --  Гдова.  Или,  по  долетописному  древнерусскому  преданию,  тогда  еще  первоначально  --  Вдова. Потому  что и  город,  точнее,  тогда  ещё всего лишь  небольшой  посёлок,  назвался посёлком  Вдов.    Только  хотя  разница  вроде  бы  и  небольшая,  с  основанием  Гдова,  когда-то  якобы  Вдова,  дело обстояло  несколько  иначе, нежели с  достославным  Питером.  Тут  то   ли   великого  русского  царя-государя –императора  поблизости  не  оказалось,  то  ли  надо  было,  чтобы  еще  сто  лет  прошло  после  того,  как  он  там  объявился,  то  ли  великого  русского  поэта  не  нашлось.  А  скорее  всего  просто  потому,  что  у  каждого  города,  как  и  у  каждого  человека,  своя  судьба,  своя  история.
        Да  к  тому  же  изначально городов  на  Руси,  больших  и  малых,  вон их  сколько  --   и  не  сочтешь.  Где  уж  тут  на  все  про  все  великих  царей-государей   да  великих  поэтов  напасешься,  если  таковые,  по  меткому  замечанию  Гоголя,  раз  в  несколько  столетий  родятся.  Или,  скажем,  как  Александр  Невский,  может  и  вообще  раз  в  тысячелетие.  А  иные,  как  Святослав,    и  того реже.  Что,   разве  не  так?  Увы…
       Исследователи,  между  прочим, установили,  что  при   закладке  Санкт-Петербурга  Петр  !  лично  и   не  присутствовал.  Но  это  так,  к  слову.
     А  другого  направления  исследователи  из  числа  местных  краеведов  установили,  что  Гдов  --  ровесник  древнейшего  на  Руси  города  Изборска.  А  Изборск,  как  известно,  в  знаменитой  Повести  временных  лет  упоминается  под  862  годом. Так  что  вот  какая  у  Гдова  летописная  история.
        Да  и  предистория   опять  же  у  каждого  поселения  своя.  Не   важно,  писаная  или  неписаная.  Может,  неписаная  еще  и  богаче,  еще  интереснее.  Как,  например,  у  того  же  Гдова-Вдова,  который, как  мы  видим,   намного,  ох,  намного  старше  Петербурга.  Можно  сказать,  в  прапрадеды  ему   гож.
     Ну,  и  вообще,  что  такое  --  история?   Историей  почему-то  считается  лишь  то,  что  когда-то  кем-то  записано.  А  что,  разве   того,  чего  никто  не  записал,  никогда  и  не  было?  И  что,  эти  писаки,  всякие  там  летописцы  и  прочие  последующие  бумагомараки,  были  такими  всеведами,  что  ни  в  чем  никогда  и  не  ошибались?   И,  простите  за  прямой  откровенный  вопрос,  никогда  ни  в  чем  не  лукавили?  Попросту,  сермяжно  по-свойски,  по-русски  говоря,  не  домысливали,  не  врали?
     А-а!  То-то  и  оно.  Так  что  хотите  верьте,  хотите  не  верьте,  Гдов,  когда-то  Вдов,  а  изначально  и  вообще  безымянный,  начался   именно  с  этого  восхищенного  ребячьего  восклицания:
     --  Ой,  мамочка,  мы  -- в  раю!!
    В  этом,  наивно  восторженном,  прозвучавшем  явно  спросонок,  голосе  мальчонки  было  столько  уверенности   в  своей  догадке,  что  матери  и  не  захотелось  ему   возражать.  Огорчать  не  хотелось,  разочаровывать.  Да  к  тому  же  место  было  и  в  самом  деле  поистине  райским.  И  таким  покоем,  таким  умиротворением   веяло  со  всех  сторон,  что  вот  так  глядел   бы,  глядел  и  не  нагляделся.  Право, рай,  да  и  только!
      А  пришли  они  сюда  поздней  ночью.  Поздней, да к тому же и ненастной.  Отчего тьма  до  невозможности  непроглядной  была,  почти  кромешной.  Погода,  как  назло,  выдалась  такой,  что  на  небе  --  ни  звездочки.  Сплошные  тучи.  И  ливень  хлестал.  И  гроза  бушевала.  Так  что  они  и  не  могли  рассмотреть,  куда  судьба  привела.   А   когда  рассвело,  глянули   и  облегченно  вздохнули.  Рай   не  рай,  а   --  хорошо.   И  красота…   У-у,  глаз  не  отвести!   А  то,  что  первым   высказал  свое  восхищение  ребятенок,  так  это  же  вполне  понятно.  Взрослому  не  пристало  ахать  да  охать  по  поводу  всяких  разных  пейзажных  красот.  А  дитя   --  оно  на  то  и  дитя,  чтобы  любому  добру   искренне   радоваться.
    Да  и  всем  можно  было  только  радоваться.  Что  ни  говори,  мучения,  выпавшие  на  их  долю  в  долгом  и  многотрудном  пути,  были, значит,  не  напрасными.  Ведь  это  сколько  же  времени  они  сюда  шли?  Ой,  и  не  сказать,  сколько!  Шли,  отбиваясь  от  наседавших  сзади  врагов.  Шли,  выбиваясь  из  сил.  Шли,  буквально  валясь  на  землю  от  изнеможения.  И  не  раз  падали,  но  поднимались  и  снова  шли.  Казалось,  не  густая  людская  масса  из  движущихся  человеческих  тел,  а  могучая,  неукротимая  река  текла  откуда-то   из-за  одного  окоема  к  другому.  А  это  шли  они   --  славяне.   Шли  день  и  ночь.  И  еще  день  и  ночь. И  еще.  И  еще.  Давно  уже  и  счет  потеряли   этим  невыносимо  тяжким  дням  и  ночам,  а  все  шли  и  шли.
       А  жили  до  того  возле   самого-самого  синего  моря-окияна.   Такого  синего,  такого  теплого,  такого  ласкового,  как  голубые-голубые   глаза  любимой  славянки,  как  ее  нежная-нежная,   добрая-добрая,  ласковая-ласковая  улыбка.  И  жили  они  там  хорошо,  зажиточно,  богато,  привольно.  Жили в  мире  и  дружбе  и  промеж  себя  и  с  соседскими   племенами.   Соседи  и  называли  их  славянами.  И  еще  славянороссами.  Потому  что  были  они  славными  людьми.   И   к  тому  же  светловолосыми,  русыми.  А ещё  широко шла молва о том, что славяне --  дети Солнца.
     Вообще  названия  племен  исходили  от  внешнего  облика.  Негр, к  примеру,   в  переводе  с  латинского  «нигер»  означает  черный. « Сиам»    от   санскритского  --  коричневый.   Папуас  от  малайского  «пуа-пуа»  --  темнокоричневый. Эфиопы  --  это  «обожженные  солнцем».  То  есть  смуглые  от  непреходящего  загара.  А  вот  европейцев   африканцы  называли  «ойбо»,  то  есть  «потерявшими  цвет».
    Да  что,  впрочем,  вдаваться  в  далекую  древность.  Европейцы  всех  аборигенов  Нового  Света  с  времен  завоевания  Америки  за  красный  цвет  их  кожи  так  и  называют  краснокожими.   А  те  их  --  бледнолицыми.
     Или,  скажем,  вьетнамцы  с  иронией  окрестили  англичан  гусинопуховыми.  То  есть  --  рыжеволосыми.
     Ну,  «росс»,»русс»  и  на  санскритском,  и  на  индоарийском,  и  на  индоиранском,  и  на  многих  других  языках  означало  -- «светлые»,  светловолосые,  русые.  Отсюда  и  пошло  --   славные  россы, славяноруссы,  руссы, русины, русичи,  русияне,  русские.
    Сами  славянороссы  считали  себя  детьми  Ярилы  --  Солнца,  которого   числили  своим  главным  Богом.  Ибо  Ярило  --  это  самый-самый  главный,  самый   яркий  свет.  Свет  и  тепло,   дающие  жизнь  всему  сущему,  всему  живому.  Отсюда  --  яр,  ярь,  ярый,  яркий,  ярость,  яростный.
       Да и  вообще    именем   все  их  знали  как  славных,  добрых  людей. Людей  широкой, открытой,  славной  и  щедрой  души.  Были  они  поначалу  охотниками  и  скотоводами,  а  затем  оратаями,  пахарями,  ибо  орали,  то  есть  пахали  землю,  сеяли  и  выращивали  хлеб   и  разнообразные  овощи.  И  если  от  кого  и  зависели,  то,  пожалуй,  лишь  от  погоды.  А  погода  зависела  от  Ярилы  --  Солнца.  И  Ярило  к  ним  благоволил  --  помогал  выращивать  хорошие  урожаи  и  сытых,  тучных  животных.  Потому  и  жили  они  богато.  Жили,  как  ныне  сказали  бы,  на  широкую  ногу.  В  смысле   -  размашисто,  ни  в  чем  себе  не  отказывая  и  не  понимая,  что  такое  скупость,  жадность,  алчность.  И  далеко  на  все  четыре  стороны  света  гремела  слава  о  их  необычайной  доброте,  редкостном,   неподражаемом  гостеприимстве  и  хлебосольстве.
    И  очень  уж  славились  своей  прирожденной  деликатностью. Как  сказали  бы  сегодня,  благовоспитанной  корректностью. Ну, душу  такую  имели,  характер. По-нынешнему,  этот,  как  его…  ну,  менда…  тьфу-ты,  ну-ты, менталитет. Никого  никогда  старались  не  обидеть,  словечка  никому  неприятного  не  сказать.  А  как  же,  все  люди  --  люди,  всех  уважать  надо,  со  всеми  на  равных  жить.
    А  уж  доверчивы  были  --  истинно  дети.  Истинно  --  дети  природы.  Прослышав  про  их  доброту  и  щедрость,  к  ним,  бывало,  со  всех  концов  необъятной  вселенной  валом  валили  разноплеменные  гости.  Знали:  любого  и  каждого   здесь  приветят,  каждого,  как  родного,  обогреют  у  своего  очага,  напоят,  накормят,  да  еще,  провожая,  и  на  дорогу  всякой  разной  вкуснятины  дадут.
     Это  у  них  обычай  такой  был.  Из  рода  в  род  передавался.  Только  люди  ведь  разные,  и  нередко  взамен  ожидаемой  ответной  доброты  на  гостеприимных  славян  обрушивалась  что  ни  на  есть  черная  неблагодарность.  Бывало,  придут,  вроде  полуживыми  от  измождения  притащатся,  а  потом,  отъевшись  на  даровых  харчах,  и  почнут  дорогие  гостюшки  выкобениваться.  То,  глядишь,  к  юным  женам  и  девам  нахально  пристают,  то  стариков  обижают,  то  беззастенчиво  хапают,  что  им  приглянется.  А одернешь, сделаешь  замечание  --  скандал,  брань,  вплоть  до  драки.  Поневоле  приходилось как  следует  вразумлять.  И  тут  уж  до  самого  противного  мордобоя,  даже  до  крови  доходило.  До  смертоубийства.
     Особенно  досаждали  племена  тетов  и  готов.  Как  несколько  позже  их  именовать  стали,  тевтонов.
     От  «тевтонов»  пошло  «тойчен»,  ныне  --  «дойчен»,  самоназвание  современных  немцев,  что по-ихнему  тоже  означает   -  люди.  Только  какие  же  это,  будь  они  неладны,  люди,  если  без  грабежа,  без  насилия  и  разбоя,  дня  прожить  не  могли.  Свирепыми  толпами,  многочисленными  бандами   нападая  на  миролюбивых  и  трудолюбивых  славян,  они  ради  поживы   убивали  ни  в  чем  не  повинных  перед  ними   жителей,  даже  если  те  не  оказывали  им  никакого  сопротивления.  А  когда  завязывался  бой,  приходили  в  такое  исступленное неистовство,  что  по-волчьи  дико  выли,  грызли,  терзали  зубами  собственные  щиты  и  сбрасывали  с  себя  одежду.
      Звери!
     О  чем  уже  их  название  красноречиво  говорит.   Германцы  -  это от  древненемецкого  «гер»  --  копье,  и  «манн»  --  человек.  Человек-копье, одним  словом,   И  они  этим  гордились.
     А,  скажем,  «сакс»  означает  меч.  Так  что  саксы  --это  меченосцы.
    А  «белг»  --  это  колчан  со  стрелами.  То  есть  прародители  бельгийцев  «белги»  --  это  лучники.
     А   «кельт»   --  это  вид  древнего  боевого  топора  с  коленчатой  рукоятью.  То  есть  «кельты»  --  это  воины,  вооруженные  топорами.
    А  вот  еще  родственные  германцам  по  языку   племена  израильтян.  Эти   с   еще  большей  надменностью  высокопарно   величают  себя  «сыны  Израиля».   То  есть  те,  кто  побеждает.  Согласно  ихнему  преданию,  иудей-израильтянин   Иаков,  считавшийся  прародителем  12  еврейских  племен,  изменил  свое  имя  на  «Израиль» в  честь  того,  что  одержал  победу  то  ли  над  божьим  ангелом,  то  ли  над  Самим  Богом.
    Миф?  Хм,  миф,  но  --  какой!   Не  зря,  стало  быть,  живет  молва, что  первобытные  иудеи  были  еще  более  жестокими  и  кровожадными,  чем  германцы.   Они  единственно  только  тем  и  занимались,  что  постоянно   грабили  и  уничтожали  те  соседние  племена,  которые  жили  честным  трудом,  скотоводством  и  земледелием.
     Вот  так  о  характере,  о  сущности  племен   свидетельствуют  их  недвусмысленные  наименования.  А  славяне  извечно  не  любили  воевать.   Воевали,  конечно,  поскольку  вынуждены  были  обороняться,  но  --  не  хотели.   И  даже  когда  наносили  врагам  сокрушительное  поражение,  ничуть  тому  не  радовались,  не  гордились  своей  военной  победой.  Наоборот,  печалились.  Горько  печалились.   Радоваться  войне  и  военной  победе,  говорили  они,  значит   радоваться  кровопролитию,  радоваться  массовому  смертоубийству.  Разве  это  по-человечески?!
     Да  и  вообще,  рассуждали  они,  скажите,  зачем  воевать?   Зачем  убивать  других  людей?  Ради  чего?  Ради  пропитания,  ради  еды?  Так  еду  лучше  добыть  на  охоте  или  рыбной  ловлей.  Или  скотоводством  и  землепашеством.  Это  же   куда  приятнее,  куда  благороднее,  нежели   устраивать  кровопролитные  побоища.
      Или,  скажем,  воевать  ради  захвата  чужих  пашен, чужой  земли,  чужих  благоустроенных  поселений?  Так  вон  сколько  окрест   еще  ничейной,  никем  еще  в  те  времена  не  занятой,  не  заселенной  земли.  Приходи,  поселяйся,   живи.
   Будучи  людьми  сугубо  мирными  и  миролюбивыми,  славяне  долгое  время  и  оружия-то  никакого  не  имели. Когда  на  них  нападали,  так  отбивались  разве  что  орудиями  своего  труда  --  тяпками,  мотыгами,  серпами  да  косами.  А  чаще  всего  просто  снимались  с  уже  обихоженных,  обжитых  мест  и  уходили  туда, где  их  никто  не  тревожил.
     И  не  потому,  что  не  могли  дать  должный  отпор.
     И  не  потому,  что  боялись  смерти.
     Нет,  смерти  они    не  боялись.  Умереть  означало  для  них  уйти к  праотцам.  К  своим  горячо   любимым,  ранее  ушедшим  из  жизни,   отцам, дедам,  прадедам  и  прапрадедам.  Которых  они  не  просто  любили,  а  чтили,  почитали  как  Богов. Вот  ведь  откуда  живет  и  доныне  выражение  «уйти  к  праотцам».
      А  страшнее  смерти,  ненавистнее  смерти  была  для   славян  неволя,  чужая  власть  и  плен. Сколько  себя  помнили,  они  не  были  и  не  хотели  быть  ничьими  невольниками,  ничьими  рабами.   Божьими  рабами  их  мечом   и  кровью   вознамерилось сделать  жестоко  и  коварно  насаженное  на  Руси  христианство.  А  тогда,  в  древности, Богами  и  божествами  была  для  них  Матушка-Природа  и  ушедшие  в  мир  иной  праотцы.  Им  они  поклонялись,  но  как  при  жизни  перед  ними  не  раболепствовали,  так  и  после  их  смерти  рабами  им  не   были.  Изначально,  прирожденно,  как  сказали  бы  сегодня,  генетически  вольнолюбивые,  свободолюбивые, славяне  тем     паче  не  допускали  и  мысли  о  том,  чтобы  стать  рабами  каких-то  земных  владык.
    А  если  кому  и  молились,  так  это Природе-матушке, Земле-матушке   и  Яриле-солнцу. Своему Богу Отцу, Создателю и Кормильцу.
        Ибо  Природа    всему  сущему,  всему  живущему  Матушка,  а  Ярило   всему  сущему,  всему  живущему  Отец.
      Ибо  Природа-матушка   и  Ярило-Солнышко  всему  сущему,  всему   рождающемуся  дарят  жизнь.  И  всех  поят  и  кормят,  и  всех  окружают  родительским  теплом  и  заботой.
      Посему,  уходя  от  злых  и  завистливых,  лицемерно  подлых  и  коварных  соседей-недругов,  отбиваясь  от  преследующих  врагов, славяне  шли  не  абы  куда,  а  в  том  направлении,  откуда  ежедневно  поутру  ставало   просыпающееся  солнышко.  По  их  разумению,  где-то  там,  где  живет  и  ночует  Ярило-Солнце,  и  должна  находиться  пока  еще  неведомая  им   Земля  обетованная.  Тот  край, тот  гостеприимный  и  дружелюбный  рай,  где  все  живут  в  мире  и  добром  согласии,  не  затевая  войн  и  убийств,  не  зная  плена  и  рабства.
                ЖИВАЯ  ВОДА
      Особенно  трудным  и  долгим  был  этот  их  последний  переход,  который  впоследствии  назовут  великим  переселением  славян.  Когда-то  они  занимали  междуречье  Одера(Одра)  и  Эльбы(Лабы),  побережье  Адриатики,  весь  Балканский  полуостров,  равнину  в  среднем  теченье  Дуная  и  побережье  Черного  моря,  именуемого  тогда  Русским.  Но  в  дальнейшем,  уходя  от  соседской  зависти,  вражды  и  бесконечных  грабительских  разбоев,  вынуждены  были  двинуться  на  восток  и  северо-восток  к  побережью  Балтийского,  тогда  --  Варяжского  моря.
     Шли   по  невообразимому  бездорожью.  Шли  по  долинам  и  по  взгорьям.  Шли  по  непроходимым, казалось,  болотам.   Шли  через  неприступные  с  виду  горы.  Пробирались,  прорубались  через  дебри  девственных  лесов.  Не  сказать,  что  бежали,  отступали  от  наседавших  врагов.  Нет,  отбивались.  Отбивались  ожесточенно.  Каждая  пядь  покидаемой  земли  была  полита  их  и  вражеской  кровью.  И  если  не  имеющую  ни  начала,  ни  конца  непостижимую  вечность   для  постижения  ее  мерять  какими-то  отрезками  времени,  то  происходило  их  великое  переселение  не  день  и  не  два,  и  не  год  и  не два года,  а,  пожалуй,  и  не  один  десяток  веков.
     А  накануне  всю    ночь,  всю  долгую-долгую  доисторическую  ночь, не  переставая,  бушевала  гроза.  И  всю  ночь,  казалось,  нескончаемо  долгую  доисторическую  ночь  разъяренный   громовержец  Перун,  их  покровитель  и  защитник,  метал  с  сурово-мрачных  небес  свои  всесокрушающие  огненные  стрелы-молнии.  И  всю  ночь, всю  долгую-долгую,  всю  нескончаемо  долгую  долетописную  ночь  бог  ветра  и  бури  Стрибог  с  одуряющим  треском  ломал,  валил,  выдирая  с  корнями  столетние  и,  пожалуй,  тысячелетние    деревья,  устраивая  непреодолимые  лесные  завалы  перед  преследующими  славян  врагами.
   Что  и  ободряло,  и  воодушевляло,  и  поддерживало   славян  в  этом   их  долгом-долгом  и  многотрудном  пути.  Догадывались,  видели,  понимали,  что  и  сама  Матушка-Природа  за  них!
    И  Ярило  за  них.
   И  Перун-громовержец  за  них.
   И  Стрибог, Бог ветра и урагана, за  них.
   И  конечно  же  все-все  их  славянские  Боги и  божества за  них.  Это  ведь  именно  Матушка-Природа  и   всевидящие  и  всемогущие  праотцы помогли  им  отразить  нескончаемые  нападения  преследующих  врагов  и  уйти  без  особо  тяжких  потерь.
     Как  долго   шли,  где  шли,  по  какому-такому  бездорожью  плутали,  наутро  никто,  пожалуй,  толком  и  не  рассказал.  Донельзя  усталые,  изнуренные,  еле  живые,  они  лишь  перед  рассветом  выбрели  на  более-менее  сухую  возвышенность   в  непроглядно  дремучем  лесу,   в  изнеможении  повалились  на  землю  и  тут  же  и  уснули.  И  спали,  спали,  спали  долгим,  беспробудным,  прямо-таки  мертвецки  беспробудным  сном.
     И  сколько   времени  спали,  тоже  никто  и  сказать  не  мог. Может, и вовсе не спали, а просто  лежали в изнеможении.
     А  проснулись-пробудились  от  нежного,  как  птичий  щебет,  обрадованно счастливого  ребячьего  лепета:
     --  Ой,  мамочка!   Ты  все  еще  спишь?  Да  проснись  же,  проснись!   Посмотри!  Нет,  ты  только  посмотри,  как  здесь  хорошо.  Как  красиво.  И  как  тихо.  Нет,  так  красиво  и  так  тихо  может  быть  только  в  раю…
      После  того  светопреставления,  что  творилось  ночью,  тишина  и  самом  деле   казалась  неправдоподобной,  и  вправду  как  бы  неземной.  Наверно,   потому  мальчишке  никто  ничего  и  не  ответил.  Ничего  не  сказала  и  мама.  Знала,  ей  ли  не  знать,  чьи  слова  повторял  ее  несмышленыш.  В  последние  дни  на  их  долю  выпало  столько  напастей  и  бед,  что  иногда  думалось:  ну,  все,  конец!  И  она,  прижимая  свою  кровиночку,  свое  неразумное  чадо  к  груди,  только  и  могла  почти  в  беспамятстве  шепнуть:
      --  Тихо,  сынок,  тихо!  Потерпи!  Потерпи,  скоро  край…
      А  уже  и  сама  выбивалась  из  последних  сил.  Так,  что  уже   и  слова  на  выдохе  толком  произнести  не  могла.  И  заикалась, еле  слышно  шепча:
     -- К-к-рай… Р-рай… Рай…
    Сама    веря  и  не  веря  в  то,  что  говорит,    измученного  ребенка  успокаивала. Объясняла,  что  они  идут  туда,  где  живет  самый  добрый  и  самый  главный  их  бог   --  Ярило.  И  что  там  им  всем  будет  хорошо.  Там…  к-к-к… рай…
     И  вот  наконец-то,  наконец-то  пришли.  Пришли.  Как  не  вздохнуть  наконец-то  полной  грудью!  Как   не  порадоваться…
      Да  и  картина,  открывающаяся  взору,  была,  как  сказали  бы  современные  поэты,  чарующей.  Обалденно  чарующей.  Над  буйным  разнотравьем  просторной  лесной  поляны  гордо  вздымали  свою  столь  же  буйно-зеленую  крону  величественные,  в  три-пять  обхватов,  вековые  дубы  и  липы.  А  чуть  поодаль  за  ними  --  надо  же!  --  вперемешку  с   вязами,  кленами  и   кудрявыми  белоствольными  березами   росли  яблони,  груши,  и  даже  вишни,  и  сливы. Их  широко  распростертые  ветви,  клонясь  к  земле,  буквально  ломились  от  обилия  наливающихся  плодов  и  спеющих  ягод.  Истинно  райский  сад!  Райские  кущи!
      Занимающийся  в  круговороте  времен  новый  день  обещал  быть  солнечным,  ясным.  После  ночного  ливня  уже  спозаранку  начало  парить,  и  яблочно-фруктовый  дух,  смешанный  с  ароматом  по-весеннему  ярких  цветов, переспелой  земляники  и  пчелиного  меда  невидимым  пряным  облаком  густо  реял  по-над  поляной.  И  ярко-алые  тюльпаны,  усыпанные  серебристо-хрустальными  крапинками  дождинок,  склоняя  головки,  отвешивали  поклоны:  «добро  пожаловать!  Добро  пожаловать,  люди  добрые!  Здравствуйте!  Здравствуйте  и  ныне,  и  присно,  и  во  веки  веков!»
      --  А  воздух!  Мамочка,  какой  воздух!  А  как  вкусно  пахнет!  --  щебетал  мальчишка.  --  А  цветы!  Ой,  сколько  здесь  цветов!  А  какие!  Нет,  такие   красивые  цветы  могут  быть  только  в  раю!
     Счастливый,  младенчески  нежный  голос  ребенка  звенел,  как  родниковые  струи  говорливого  лесного  ручейка.  И,  явно радуясь  его  звучанию,  со  всех  сторон  откликались-перекликались, щебетали-пели  веселые  птицы.  По  цыплячьи  восторженно  чирикали  шустрые  воробьи,  радостно  тенькали  синицы,  самозабвенно  заливались  сладкоголосые  малиновки,  а  пуще  всех  рассыпали  свои  колдовские  трели  извечно  шальные  соловьи.  Нежданно-негаданно  в  этот  утренний  концерт  вплелся словно  бы  чем-то  недовольный  зов  коростеля.  Ворчливо,  как  бы  нехотя,  сквозь  полудрему  отозвался  уставший  жить  на  белом  свете  трехсотлетний  вещий  ворон.  А  громче,  старательнее,  назойливее  всех  иных,  вселяя  счастливые  надежды,  предсказывала  пришельцам  многая-премногая  лета  беззаботная  кукушка.
     --  Ой,  а  птичек-то,  птичек  сколько!  --   Восхитился  мальчонка.  --  А  как  поют,  как  красиво  поют!  --  И  без  тени  сомнения  определил:   --  Райские  птички!
     --  Ах  ты  птенчик  ты  мой  ласковый!  --  улыбнулась  счастливая  мама.  –Нравится?  Ну  вот.  Ну  вот  и  хорошо.  Я  же  тебе  говорила,  что  все  будет  хорошо.  И  пойдём-ка  мы  с  тобой  к  реке,  умоемся.  Я  тебя  умою,  да  и  сама  умоюсь.  Видишь,  какая  река?  --  И,  показывая,  похвалила:  --  Всем  рекам  река!  Райская…
       Почти  вплотную  подступающий  к  реке  и  прикрытый  редколесьем  покатый  холм,  гостеприимно  приютивший  их  ненастной  ночью,  представлял  собой   сравнительно  небольшую,  окаймленную  густыми  деревьями, приподнятую  к  небу  возвышенность.   По  всей  вероятности,  это    был  солидный  бугор,  вершину   которого  сгладил  некогда  проползший  здесь  могучий  северный  ледник,  щедро  рассыпавший  окрест  вразброс  валяющиеся  гранитные  валуны.  А    теперь  и  блаженно  голубое  небо  казалось  таким  близким,  что  до  него  можно  было  дотянуться  рукой.  И   на  все  четыре  стороны  света  открывался  неповторимый  вид,  поистине  фантастическая  по  красоте  панорама.
     Внизу,  буквально  в  нескольких  шагах,  неторопливо  катила  свои  плавные  волны   неведомая  река,  которую  мама  уже  назвала  райской.  Присмотревшись,  увидели,  что  в  нее,  огибая  поляну,  впадают  еще  две,  малость  поуже.      Простирающиеся  повдоль  них  пойменные, изумрудно- зеленые    луга  тоже  были  густо,  словно  кочками,  усеяны  разнокалиберными,  темно-бурыми,  гранитными   валунами. Огромный,  видать,  громадный,  мощный  когда-то  прополз  здесь  ледник.  Покрытые  седыми,  шершавыми  наростами  едва  ли  не  допотопных  лишайников,  эти  каменные  глыбы  наверняка  помнили  не  только  ледниковый  период,  но  и  день  Сотворения  мира.
    Слепящее,  словно  бы  вот  оно,  в  двух  шагах,  из-за  зеленовато  голубого  окоема  медленно-медленно,  тяжеловато,  но  с  полным  осознанием  своей  божественной  значимости  выкатывалось,  вставало,  восходило  яркое-яркое,  до  невозможности  яркое  солнце.  Ярило…
      --  Здравствуй,  батюшка-Ярило!  Здравствуй,  родненький!  Здравствуй  и  ныне,  и  присно,  и  во  веки  веков!   --  ласково,  певуче  проговорила  женщина-мама  и  низко-низко  поклонилась.
     А  в  противоположной  стороне,  куда  круто  поворачивала главная  из  трех,  самая  широкая  река,   такое  же  необозримое,  как  и  расстилающийся  до  окоема  густющий  лес,  богатырски   разметнулось  ярко  сияющее,  словно  до  краев  наполненное  расплавленным  золотом,  преогромнейшее  водное  пространство.  Не  то  море,  не  то  морской  залив,  не  то  неоглядно  огромное,    неведомое  озеро.
     --  Ого-го!  --  только  и  смог  сказать  изумленный  мальчишка.  --  Чудо!
     --  Чудо-озеро!  --  в  тон  ему   согласилась  мама.  И  снова  низко-низко  поклонилась:  --  Здравствуй,  Чудо-озеро!  Здравствуй  и  ныне,  и  присно,  и  во  веки  веков!  Здравствуй  на  радость  и  во  благо  всем  людям  и  нам  в  том  числе!
     И  мальчонка,  следуя  материнскому  примеру,  тоже  низко-низко  поклонился  и  дружелюбно  сказал:  --  Здравствуй,  Чудо-озеро!  Здравствуй  и ныне,  и  присно,  и  во  веки веков!  --  И  уже  от  себя  добавил:  --  Здравствуй,  миленькое!
      -- Молодец!  --  похвалила  его  мама.  --  И  вот  так  каждое  утро  говори.  И  солнышку  красному,  и  небушку  ясному,  и  Чудо-озеру,  и  реке….   
     В   реке,  в  тихих  речных  заводях,  распластав  широкие  листья,  желтели  непролазные  заросли  кувшинок.  С  ними   кокетливо  соперничали  ароматом  и  красотой  нежно-белые  лилии.  А  вода  в  прогалах  между  ними  была  так  незамутненно  чиста  и  прозрачна,  что  даже  издали,  с  довольно-таки  высокого  берега  можно  было  без  труда  различить,  как  в  глубине,  лениво  пошевеливая  плавниками,  дремали  косяки  неповоротливых,  неправдоподобно  больших  от  ожирения,  полусонных  рыб.   Смотришь-смотришь,  и  не  вдруг  поймешь,  что  же  это  там  за  чудище  такое.  То  ли  невесть  как  оказавшаяся  здесь,  в  реке,  атлантическая   акула,  то  ли  вымахавшая  на  обильных  харчах  в  акулий  рост  зубастая  щука. Или,  может,  это  судак  такой?  Или  донельзя  разжиревший  сиг?  Не  сиг  и  не  лещ,  а  прямо-таки  на  убой  откормленные  поросята.  А  вокруг  них  мелкой  рыбешки,  всяких  там  ершей-окуней,  ряпушки,  плотвы  да  снетка  --  аж  в  глазах  мельтешит.
     --  Вот  это   --  да! -- опять удивился  мальчишка.  --  У-у-у!
     --  Дивно,  да?  --  улыбнулась  мама.  Радость  сынишки  была  и  ее  радостью.  --  Ну  ладно,  ладно,  идем  к  реке. Давай  руку!
     --  Я  сам!  Я  сам!  --  запротестовал  тот.  --  Я  уже  большой.
   -- Ну, если  большой,  так  не  будь  лапшой,  смотри  под  ноги.  А   то   ишь  рот  разинул.  Гляди,  ворона  влетит. 
    --  Не  влетит.  Я   её  сразу  поймаю…
     Словно  к  зеркалу,  склоняясь  к  реке,  любовались  своими  отражениями  томно   расслабленные  плакучие  ивы.  Пряди  их  густых  распущенных  кос,  казалось,  таяли,  растворялись  в  легкой  утренней  дымке.  И,  довершая  эту  идиллию,  как  на  прикроватном  коврике  у  нынешних  обывателей,  по  спокойной,  голубой-голубой  речной  глади  скользили  белые-белые  лебеди.  Засмотревшись  на  этих  горделивых  красавцев,  мальчик  споткнулся  на  спуске  к  реке и,  обдирая  кожу  на  голых  коленках  и  животе, плашмя   заскользил  по  песчаному  обрыву  вниз. Мама  испуганно   кинулась  к  нему,  подхватила  под  мышки:
    --  Ой,  ну  что  же  ты,  а? --  по-матерински  пожалела.  И  подосадовала:  --  Эх!   Эк  ты  неловкий  какой!  А  я  ведь    говорила!  Говорила!  Больно,  да?
     Ссадины,  царапины,  глубокие  порезы  от  мелких  остреньких  камешков  остались  не  только  на  коленках,  но  и  на  ладонях,  и  даже  на  голеньком  животике. Из-под  содранной  кожи  проступила  кровь.  Морщась  от  боли,  малыш  хотел  было  зареветь,  но  вспомнил,  что  он  уже  большой,  сдержался,  лишь  глухо  промычал  сквозь  стиснутые  зубы  и,  чтобы  мама  не  увидела  его  слёз,  стремглав  кинулся  в  реку.  Нырнул,  вынырнул,  отфыркиваясь,  сполоснул  лицо,  промыл  ранки  и  вдруг  удивленно  замер. Ни  кровинки,  ни  содранной  кожи,  словно  таких  и  не  было,  словно  они  ему  только  что  померещились.  Надо  же,  в  мгновение,  в  одно  мгновение  всё  исцелилось,  зажило.
     --  Ой,  мама,  мамочка,  посмотри,  а?  --  обрадовано  возликовал    ребятенок.  --  Смотри!  --   показал  свои  только  что  в  кровь  расцарапанные  и  уже  снова  совершенно  здоровенькие  ладошки.  И  на  коленки  показал,  и  по  животику,  все  еще  не  веря  самому  себе,  ручонкой  провел.  И  везде  опять  нежно  розовела  нежная  кожица,  и  никакой  боли.   --  Во,  видишь?  Видишь?   Это…  Это  вода… Вода  здесь  такая.  --  И  восхищенно  догадался:   -- Живая!  Живая  вода. Райская…
     И  неторопливо,   как-то  слишком  по-взрослому  серьезно,  осмотрелся  вокруг.
     И  мама  осмотрелась.
     А  вокруг,  насколько  хватал  глаз,  ни  повдоль  реки, ни  на  искрящихся  росой  окрестных  просторах,  ни  на  опушке  леса,  ни  в  белоствольных  березовых  рощах,   нигде  ну  ни  тропки  тебе,  ни  хоть  какой-нибудь  мало-мальски  обозначенной  стежки-дорожки.  Нет,  определенно  от  Сотворения  мира  здесь  не  ступала  еще  нога  человеческася.  И  только  птицы  да животные,  только  дикие  звери. Первобытное  царство  непуганых  птиц  и  зверей.
     И  сколько же вокруг  было  всякой-превсякой  живности!  Повсюду,  куда  ни  глянь,  мирно  пофыркивая,  паслись  табуны  никогда  никем  не  считанных  коней,  диких  жеребцов  и  кобылиц  с  резво  бегающими    возле  них  красивенькими  жеребятками.   И  преспокойно  щипали  сочную  траву  большущие  стада  черно-белых  и  рыжих  коров    с  такими же  черно-бело-рыженькими  телятками.  И  беззаботно,  в  окружении  круторогих  вожаков-баранов  и  высокомерно-надменных  бородатых  козлов,  дружненько   перекатывались  с  места  на  место  отары   тонкорунных  овец  и  грациозных  косуль.
       Да  и  на  самой  поляне,  ничуть  не   пугаясь  появившихся   здесь  ночью   людей,  беспечно   сновало  туда-сюда  великое  множество  всевозможных  зверей  и  зверушек.  Вверху,  в  буйной  кроне  деревьев,  радуясь  наступающему  дню,  чокали  и  резво  носились  с  ветки  на  ветку  пышнохвостые  белки  и  куницы.   Внизу,  под  могучим  пологом   раскидистых  вековых  дубов,  похрюкивая  от  удовольствия,  с  аппетитом  пожирали  желуди    толстобрюхие  дикие свиньи и  клыкастые  кабаны.  И  здесь  же,  словно  охраняя  их,  положив  хищные  морды  на  мирно  скрещенные  лапы,  дремали  злющие-презлющие  с  виду  кровожадные  волки.  И  совсем  рядом,  не  выказывая  никакой  боязни,  горделиво  вздымали  свои  полированные  ветвистые  рога  лоснящиеся  от  сытости  лоси.  И  тут  же,  в  густых  зарослях  малинника,  лакомилось  спелой  ягодой  семейство  бурых  медведей.
    И  никто  ни  на  кого  не  нападал,  никто  никого  не  трогал.  Мирно  жили,  дружелюбно.
    --  Ну,  что  я  тебе  говорил?   --  тихо,  в  полушепот,  чтобы  никого  не  спугнуть,  не  потревожить,  сказал  мальчик.  --  Видишь…  Видишь…  Я  же  тебе  сказал,  что  здесь  --  рай.   Да  ты  же  и  сама  рассказывала,  что  в  раю  никто  никого  не  обижает.
     --  Ах  ты,  умничек  мой,  фантазер-неуёма!  Вечно  выдумаешь  что-то,  придумщик. Но  я  же  с  тобой  и  не  спорю,  -  ласково  отозвалась  мама.  Только  вот  был  бы  поосторожнее,  получше  смотрел  сам  за  собой.  А  то  носишься,  как  угорелый. Рай  не  рай,  а  головы  не  теряй.
      --  Не  возражай,  мама-жонка!  --  раздался  вдруг  властный  мужской   голос.  --  Истина  глаголет  устами  младенца.  Али  не  розумеешь?  Видишь  же,  земля  здесь  свободная,  ничейная,  никем  пока  что  не  заселенная.       Потому  и  рай.  Вот  мы  здесь  и  поселимся.  Чтобы  мы  никому  не  мешали  и  нам  никто  не  мешал.   А  если  тут  еще  и  не  взаправдашний  рай, то  мы  таковой  построим.
    Мужественный,  уверенный  голос  звучал,  казалось,  едва  ли  не  с  горних  небесных  высот.  Да  так  раскатисто,  будто  это  сам  Перун-громовержец  вещал.  Но  принадлежал  этот  трубный  глас  не  невидимому  божеству,  а  такому  же  человеку,  как  и  та,  кого  он  назвал  мамой-жонкой,  и  ее  сынок.  Просто  был  он,  этот  простой  земной  человек,  мудрым  волхвом  и  вождем,  приведшим  сюда  их  племя.  Неслышным,  упругим  шагом,  шагом  опытного  охотника  и  воина,  подойдя  сзади,  он  погладил  шустрого  ребятёнка  по  его  непокорным  вихрам,  назидательно  повторил:
    --  Истина  глаголет  устами  младенца!  Место сие зело красно.  А  если  здесь  ещё  и  не  совсем  рай,  то  мы  таковой  создадим. Сами.  Собственным  трудом.  Своими  руками. Чтобы  и  мы,  и  дети  наши,  и  внуки  по-человечески  жили.
     Вослед  за  вождем гурьбой подошло  еще  несколько  мужчин.  Зорким  взором,  взором  опытного  охотника  и  воина,  вождь  по-хозяйски  осмотрел  окрестности  и,  оборотясь  к  подошедшим,  властно  простер  перед  собой  указующую  длань:
     --  Гей,  славяне!  Гей,  славные  россы!  Слушайте, дети Солнца! Слушай, племя  Ярилы! Слушайте  и  не  говорите  потом,  что  не  слышали.  Мамам-жонкам  развести  очаги  и  готовить  горячую снедь.  Охотникам  --  на  добычу  зверя.  Мужам-воинам   ставить  городьбу.  Здесь  будет  наше  поселение.  За  работу,  друзья.  За  работу!  И  да  благословят  вас  Матушка-Природа  и  Отец наш  небесный,  Солнышко  наше  ясное  --  Ярило.
    Вот  так   --  с  городьбы,  с  ограды,  с  о-города  уютного,  истинно  райского  уголка  на  вершине  покатого  холма  над  безымянной  тогда  рекой  и  начинался  еще  безымянный  тогда  город. 
     Поначалу,  впрочем,  просто  славянское  поселение.  Ибо  поселились  там  славяне.  А  потом,  когда  прошло  много-много-премного  лет,  когда  сменилось  много-много-премного  поколений,  никто  уже  и  не  помнил,  и  не  знал,  как  и  когда   это  было.   Ведь  происходило  и  потом  ещё  много-много- премного   всяких  разных  событий.  Причем,  может,  ещё  более  важных.    Так  что  где  уж  там  думать  о  далеком-далеком  прошлом.
      Тем  паче,  что  у  каждого  кажинный  день  свои  дела,  свои  заботы.  И  вообще,  как  исстари  глаголют,  каждому  дневи  довлеет  злоба  его…
                ВЕЩИЙ    СОН 
        Светке  Недотроге  приснился  Ёська  Блуд.
      Н-да!  Это  же  надо, а?   Во  гадство-то  какое!  Во  напасть!  Ух,  как  ей  не  хотелось  бы  видеть  такой  сон.  А  еще  больше  не  хотелось,  чтобы  о  нем  прознал  кто-нибудь. Только  разве  на  этом  свете  от  любопытных  людей  что-либо  утаишь?  Про  себя-то  она  твердо  решила,  что  о  случившемся  никому  и  словечком  не  обмолвится,  но…
     Но  случилось  так,  что  её,  крайне  неприятный,  противный  для  неё  сон  подсмотрел  ярко  сиявший   в  небе  и  всё  сверху  видящий  молодой,  ясный  месяц.  Заглянул  с  высоты  в  окошко  и  увидел.  И   не  утерпел,  сразу  же  оповестил  о  том  стайку  окружающих  его  звездочек.  И   широко  раскинувшееся  внизу  Чудо-озеро  оповестил.  А  звездочки  рассказали  быстрым  волнам.  А  быстрые  волны   --  легким  вёслам.  А  вёсла  Ване-рыболову.  А  у  Вани  --  люба  Мара…
   А   когда  узнала  Мара,  все  узнали  в  их  поселке,  как  к  Светке  Недотроге  приходил  Ёська  Блуд.  О  том,  что  это  было  лишь  в  Светкином  сне,  люба  Мара  сказать  как-то  забыла,  и  по  поселку  поползла  нехорошая  сплетня.
      Во  досада-то, а? 
      Когда  это  произошло,  сказать  со  всей  определённосстью затруднительно.  Во-первых, всё  происходило  не  вьявь,  а  во  сне.   Во-вторых,  и  приснился-то  ей  этот  паскудник  Ёська  не   таким, как  есть, а  в  облике  волка.  Матерый  такой  волчище,  зубастый-клыкастый.  Приперся,  ворюга-зверюга,  из  дремучей  лесной  чащобы,  подкараулил…
     Она,  как  назло,  в  сумерках  поздним  вечером  за  водой  к  реке  пошла.  И  уже  набрала  полные  бадейки,  и  несла  на  коромысле  домой  скотинку  на  ночь  напоить,  как  вдруг…
      И  стоит,  паскуда,  щерится.  Улыбочку  умильную  своей  поганой  пастью  изображает:
     --  Крассавушка!  --  похотливо  слюнки  пускает.  --  Слатуленька  моя!  Светик-цветик  лазоревый… Лада-ненагляда  желанная…
     У  нее и  сердце  озябло.  Волк,  а  говорит  человеческим  голосом.  Как  в  бабушкиной  сказке.  И  вообще  чудной  какой-то  волк.  Не  такой,  как  все.  Диковинный.  Волки  --  они  ведь  серые,  а  этот  --  чёрный. И  шерсть  у  него  на  хребтине  чёрная,  и  морда,  и  борода…
     Х-хе,  у  волка  --  борода!  И  самая  что  ни  есть  --  Еськина.  И  голос…
     Голос-то  уж  точно  ёськин  --  похотливый,  гнусавый.  Да  еще  и  лапы  свои  поганые тянет…
    А  у  нее, на  беду,  полнехонькие  бадейки  с  водой  на  коромысле.  И  не  убежать, ни  по  лапам    дать.
     --  Ёська,  гад!  --  отшатнулась.--  Мало  того,  что  днем,  так  ещё  и ночью? 
Уйди,  подлюга,  уйди!  Сгинь  с  глаз  моих,  окаянный!  Сгинь  и  не  подходи  больше  никогда.  Не  то…
      А  тому  хоть  в  харю  плюй,  все  как  с  гуся  вода.  Она  и  плюнула:
    --  Тьфу!
     Ух,  как  он   вызверился!  Тут  не  ошибешься,  истинно  ёськины  бесстыжие  зенки.  Жгучие,  как  угли,  и  острые,  как  жало  осы.  И  голос…  Из  тысячи  голосов  узнала  бы  --  ёськин.
      --  А  ты  не  спеши,  не  торопись,  девонька,  --  елейно  гнусавит,  --  не  норови  в  колодец  плевать.  Пригодится  --  воды  напиться. Не  гляди,  что  я  сегодня  гол,  как  ободранный  кол.  Все  равно  рано  или  поздно  ты  будешь  моей.  И  всё-всё,  --  он  повел  мордой  из  стороны  в  сторону,  --  здесь  будет  моим.  Видишь,  какая  сила  за  мной ?!
     Глядит  Светка,  а  за  ним  еще  целая  стая  таких  же  страшенных  волчар.  И  тоже  человечьими  голосами  рычат-подвывают:
     --  Всё,  всё…   р-р-р…  Всё  нашим  будет!  И   овцы  с  ягнятками,  и  коровки  с  телятками,  и  кобылы  с  жеребятками… И  где  ни  ступит  нога  наша,  всё  будет  нашим.
     И  шерсть  на  них  -- дыбом,  и  пасти  ощерены, и  лапы  свои  когтистые  тоже  к  ней  тянут.  Сейчас,  сейчас  в  клочья  её  разорвут-растерзают. Но…
     Но  не  на  ту  напали!  Она  спокойно  сняла  коромысло  с  плеч,  бережно,  чтобы  не  расплескать,  поставила  бадейки  с  водой  на  землю,  хвать  секач,  которым  капусту  по  осени  секут,  и…
     И  проснулась.
        --  Чур  меня!  --  иссохшими  губами  пробормотала.--  Чур…
      Это  её  бабушка  Василиса  Премудрая  так  научила  --  в  случае  какой-либо  напасти  звать  на  выручку  кудесника   Чура.   Кудесник  --  это  чудесник.  То  есть  человек,  умеющий  творить  чудеса.  Способный  чудесным  образом  ограждать  и  спасать  от  любой  беды-опасности.  Был  он  одним  из  прародителей  их  славянского  рода-племени,  прапрадедом-пращуром,  наделенный  даром  нежнейшей  родительской  любви  и  заботы. Таким  и  остался  незримо  жить  среди  внуков  и  правнуков,  когда  ушел  в  неведомый  иной  мир.  Остался,  чтобы  незримо  помогать  во  всем  своему  потомству,  о  чём  бы  его  ни  попросили.  Вот  Светка  и  вспомнила,  и  позвала,  попросила:
     --  Чур  меня!  Чур…
    И  подосадовала,  что  проснулась.  Надо  было  не  просыпаться  и  не  Чура-Щура  Пращура  на   выручку  звать,  а  рубануть, рубануть…  Ага,  с  маху.  Со  всего  маху.  Чтобы  все  эти    морды,  все  головы  волчьи  поотрубать.  Как  кочны  на  грядке.  И  первому  --  этому  поганцу,  Ёське.
     Ее  аж  передернуло  от  отвращения,  когда  она  вспомнила  его.  И  со  злости  еще   раз  сплюнула:
    --  Тьфу!
    И   рука  долго  еще  потом  зудела:  секачом  надо  было!  Секачом!
    А  на  душе  вдруг  неспокойно  стало.  Очень  неспокойно.  До  невозможности.
    «Не  к  добру,  --  подумалось.  --  Ох,  не  к  добру…»
      Самой  себе  необъяснимым  женским  чутьём  почуяла.  Сердцем.  Душой.  Или,  как  сказали  бы  сегодняшние  знатоки-психологи,  подсознательно,  интуицией.  А  по-тогдашнему  --  близостью  к  матушке-Природе.
      А  еще  бабушка  Василиса  Премудрая  говорила  ей,  что  у  нее  что  ни  сон,  то  в  руку.  То  есть  вещие  у  нее  сны.   Что  во  сне  ни  привидится,  то  потом  наяву  и  свершится. Ибо  вещий сон  -- это весть о том, что должно  произойти. Вроде  как интуитивное  предчувствие, предвестие и предуказание.  Иногда,  правда,  несколько   иносказательное,  но  чаще   всё  в  полной  доскональности у  Светки и  свершается..  Приснилось  как-то,  когда  ещё девчушкой  была,  что  её  маманька  за  непослушание  крапивой  ожгла,  на  следующий  день  так  и  было.  А  потом  ещё  однажды,  когда  уже  заневестилась,  приятный  такой  сон  был,  будто  бы  папаня  боярскую  шапку  ей  к  дню  рождения  подарил,  он  и  подарил.  А  Миша…
       С  Мишкой-то  она  тогда  вообще-то  и  знаться  не  хотела.  Уж  как  он,  бывало,  от  одного  её  взгляда  млел,  какими  влюбленными  глазами  за  каждым  её  шагом  следил, как  за  ней  увивался, а  она  в  его  сторону  и  головы  не  поворачивала.  Нарочно.  Подумаешь,  мол,  кавалер!   Подумаешь,  она  ему  нравится.  Ну  так  и  что?  Она  всем  нравится…
    И  впрямь  так  было:  она  всем  нравилась.  И  знала  это.  И  ей  казалось,  что  и  любили  её  все.  Любили  не  только  люди  --  любила  вся  родная  природа.  И  Светка  любила  всё,  что  вокруг  видела.  Ибо  знала,  чувствовала,  ощущала,  что  у  каждого  дерева,  у  каждого  цветка,  у  каждого  лепестка,  у  каждой  травинки-былинки  есть  своя  живая,  отзывчивая  и  любящая  душа.
     И  это  к  ней,  ради  неё,  к  избушке,  где  она  жила,  с  утра  слетались  птицы.  Стаями  слетались.  Стаями  садились  на  крышу,  рассаживались  на  заборе,  заглядывали  в  окошко  и  терпеливо  ждали,  когда  она  проснётся  и  выйдет  на  крылечко. И  как  радостно,  как  дружелюбно  тогда  щебетали.   Приветствовали,  выражали  ей  свою  любовь.  И  Светка  тоже  привечала  их  ласковым  словом,  и  кормила  их  с  ладони  коноплей,  просом  или  еще  чем-либо  вкусненьким.  А  когда  шла  куда-нибудь  по  улице,  то  и  они  летели  за  ней  следом. 
     Ух,  сколько  же  их  собиралось  и  неотступно  сопровождало  её!  И  суетливые  воробьи,  и  верткие  синички,  и  шумливые  скворушки,  и  золотогрудые  зорянки,  и   шустрые   щеглы,  и  чуткие  зяблики,  и  сладкоголосые  малиновки.  А  еще  доверчивые  голуби  и  голубки.  А  сверху, перепархивая  с  дерева  на  дерево, ревниво  следили  за  ней  болтливые  сороки-белобоки.  А  за  ними  спешили,  не  отставали  голубокрылые  сойки,  и  славки-черноголовки,  и  любопытные  галки.  И  даже  вечно  чем-то  недовольные  и  недоверчивые  вороны.
    И  она  всех  понимала.  И  разговаривала  с  ними  на  их  птичьем  языке.  И  сама  была  истинно  как  птичка-невеличка,  такая  же  легкая,  воздушная,  порхающая,  красивая.
    И  язык  зверей  и  животных  понимала. И  они  тоже  понимали  её.  Ибо было  в  ту  славянорусскую   эру,  именуемую  ныне  донашенской, истинно  сказочно-былинное царство.  Царство  природного  братства,  где  все  были  природно-родными.  И  Светка,  счастливо  озираясь  вокруг, излучала  ко  всему  сущему  радость  и  любовь.  И  улыбалась,  как  солнышко,  озаряя  и  согревая   всех и  вся  своей  солнечно-лучезарной  улыбкой.
       А  Миша…   
       В  общем-то  приятно  было,  что  он  за  ней  так  приударяет.   Но  и  стеснительно.  Неловко  как-то.  А  потом…
      Потом  приснилось  как-то,  что  он  её  без  разрешения  поцеловал,  а  он  и  взаправду…
      А  подружки…
     Ах,  эти  подружки!  Им  только  попадись  на  их  острый  язычок.  Чего  только  не  напридумывают.   Она,  мол,  о  себе   слишком  большого  понятия.   Строит  из  себя,  а  сама…
      И  ничего  она  из  себя  не  строит.   Просто  стесняется.   С  малых  годков  такая.  Робкая  до  слезливости,  вот  и  сторонится  всех. Потому  с   самых  ранних   девчоночьих  лет  никогда  и  никому   не  позволяла  взять  себя   на  колени   или  хотя   бы  погладить  её по  головке.  Только  папе  и  маме.
      А  папа  и  мама… Папа  и  мама  называли  ее  деточкой.  А  еще  Светиком,  Светлячком,  Светочкой, Светланой-беляной. Очень уж  она  светленькой,  светлолицей  да  светловолосой  родилась. И  вся-вся  из  себя  была  светленькой-светленькой,  беленькой-беленькой, нежненькой-нежненькой.
      И  какие  волосики  у  неё,  какие  кудряшки!  Белые-белые,  белые-белые.  Ну  вот  как  хорошо  выбеленный  лён. Мама  так  и  говорила:
    --  Льняные...
    А  папа,  поглаживая  своей  шершавой  ладонью  по  головке,  усмехался:
    --  Белобрысенькая…Белобрысенькая  моя…
     И  тоже  словно  светлел  при  этом, добрел  лицом,  ласково  заглядывая  ей   в  глаза.
     А  глаза  у  неё…
    Глаза  голубые.  Голубые-голубые.  Ну вот  как  небо.   Как  родное  небо над  родной  Русью.  И  папа,  бывало,  говорил  еще  и  так:
     --  Русалочка…  Русалочка  моя...
     И   нежно-нежно,  осторожно,  осторожненько,  чтобы  не  уколоть  своей  колючей  бородой,  целовал  её  в  щёчку.
    А  щечка  у  неё… А  щечки  --  кровь  молоком.  Это  грудь  высокая  её  матушки  в   молоке зажгла  зорю  красную  на  лице  её.
      И  никогда,  даже  в  самую  лютую зимнюю  стужу,  не  сходил  с  её щек  яркий  румянец. И  вся  она  словно  светилась,  словно  состояла  из  негасимо  сияющего  ласково-телесного  света.  Словно  там,  под  нежной-нежной  кожей  пылало  негасимое  зарево,  и  потому  вся  она  будто  живой  светильник   даже  в  кромешном  мраке  излучала  мягкое   сияние,  какой-то теплый-теплый  молочно-ласковый  свет.
      Оттого-то  и  звали  ее  Светкой.  Полное-то  имя  --  Светлана,  но  как-то  так  пошло  с  детства.  И  по-свойски  просто, и  ласково  -- Светка.
        Ведь   такой  хорошенькой  с  младенчества  была,  такой   миленькой,  что  всякий,  кто  видел  её,  невольно  тянулся  хотя  бы   дотронуться.  Ну,  хотя  бы  кончиком  пальца.   А  она  этого  терпеть  не  могла.  Чуть  коснись  кто,  так  и  дернется  вся,  будто  шилом  её  укололи,  И  так  и  вспыхнет,  так  и  зальется  пунцовой  краской.
       Словом,  недотрога.  Оттого  и  прозвище  такое.
      Кто  посмеиваясь,  а  кто  и  всерьёз,   все   судачили,  что  это  у  неё  кожа  такая.  Тонкая,  мол,  чересчур  нежная.  Да  оно,  пожалуй,  так  и  было. Упадет  иной  раз  соринка  какая,  свой  же  волосок  с  головы  легонько  слетит  на  ее  голое  плечико,   она  так  и  вздрогнет.  А  иногда  даже  ойкнет,  словно  её  ожгли.  И  долго  потом  еще  поёживается  да  осторожненько  поглаживает  потревоженное  место,  осторожненько  проверяя,  не  образовался  ли  там,  чего  доброго,  волдырь  или  ссадина.
      И  еще  каким-то  особым  чутьём   она  постоянно  и  наяву  и  даже  во  сне  ощущала  вокруг  себя   какие-то   невидимые  и  неслышимые  движения,  чуяла   какие-то  неясные  звуки.  Они  доносились  со  всех  сторон   --  от  деревьев,  от  кустарника,  от  цветов  и  трав,  хотя  вокруг  царило  полное  безветрие.   И  от  тихоструйной  реки,  и  даже  от   отдаленно  молчащего  Чудо-озера.  И   от  неподвижно  повисших  в  небе  пушистых  облаков.  И  от  намертво  вросших  в  землю,  обомшелых  камней-валунов,  и  от  самой  земли.  И  она  знала,  что  и  эти  камни,   и  кажущаяся  бесчувственной  земля,  и  всё-всё  вокруг  -- живое.  И   камням тоже  неприятно,  если  их  неосторожно  касаться,  без  надобности  трогать,  передвигать  с  места  на  место.
      --  Дичок,   --  говорили  про  нее.   --  Дикарка.
     А  кое-кто   называл  ведуньей. Ведьмой,  попросту   говоря.  Потому  что  она   всё про  всё  ведала, всё  знала.  Ведала-знала  даже  нечто  такое,  чего  не  ведает,  не  знает  никто.
       Один  только  князь  Иван  Гордый,  который    был    волхвом   и  всё про  всё  понимал  действительно  по-своему,  уважительно  говорил,  что  никакая  она  и  не  дикарка,  и  не  ведьма,  а  просто  очень  смышленая  и  самостоятельная   девушка.  И  счастлив  будет  тот,  кому  она  даст  согласие  стать  ему  супругой.
    А  Светка  и  сама  знала  про  себя, что  никакая  она  не  ведьма  и  не  дикарка.  И  ничем  таким  особым  от  других  девушек  не  отличалась.  И  в  жизни,  в  природе  ни  от  чего  не  отчуждалась.  Весь  окружающий  мир,  все  его  явные  и  тайные  взаимосвязи   во  всей  их  кажущейся  непостижимости   она  ощущала  как  единое  целое,  где  неотделимой  частицей  была  и  сама.   Только  как-то  очень  рано  начала  ценить  свою  независимость,  ответственно  понимая, что   ей  суждено  стать  женой  и  матерью.  Как  у  них  в  поселке  говорили,  мамой-жонкой.  Поэтому  с  особой  серьезностью  судила  и  о  любви  парня  к  девушке,  и  о  супружеской  жизни. Это  было  для  нее  не  просто  тайной,  а  святым  таинством,  о  коем  всуе  распространяться  не  только  непозволительно,  но  и  стыдно.
    Единственным  парнем,  который,  как  ей  казалось,  её  в  этом  понимал,  был  только  он,  Миша.  Он  никогда  не  говорил  ей  о  своих  чувствах,  но    Светка видела,  что  она  ему  нравится.  Да  и  как  было  не  видеть,  если  он,  где  бы  они  не  находились,  не  сводил  с  нее  полных  ласки  и  нежности    сияющих  глаз.  Доходило  до  смешного.  Придет,  бывало,  незаметно,  украдкой  к  их  избушке,  затаится  в  огороде  и  смотрит,  смотрит…
     Часами,  бывало,  стоит,  следит,  наблюдает,  что  она  делает.  И  как  ходит  по  двору.  И  как  поит-кормит  коров,  лошадей   и  домашних  курочек-хохлаток.  Или  стирает  и  развешивает  на просушку  бельё..
       Однажды  за  кустами  смородины  присел.  Затаился,  чтобы,  значит,  поближе  быть.  Чудак!   Думал,  она  не  видит,  смородина-то  высокая,  густая.  А  Светка  видела.   И  как  бы  нечаянно  подошла  туда,  и  почти  натолкнувшись  на  него,  с  притворным  испугом  ойкнула:
     --  Ой,  кто  здесь?
     И  ещё  и  руки  к  груди  вскинула,  как  бы  защищаясь.  И  ещё  за  лицо  игриво  ладошками  схватилась:
      --  Ой,  Миш-ша!   Ой,  как  ты  меня  напугал!   Ф-фу…
      А  Миша  --  тот  и  взаправду  онемел,  заикаться  начал:
     --  Я…  Я…  Это…
     --  Ну?   Говори,  говори,  --  она  строго  посмотрела  ему  в  глаза:  --  Ты,  я  вижу,  что-то  хочешь  мне  сказать?  Говори.
      --  М-м-м … Я..  Да…  Н-нет…  То  есть… 
     И  убежал.  А  подружки  --  надо  же!  --  подсмотрели.  И  тут  же  песенку придумали:
                При  народе,
                В  огороде,
                Миша  Светочку  обнял
При  народе. 
                А  Светланке
                Стыдно  стало.
                Стала  плакать  и  рыдать:
                --  Не  смей,  Миша,  обнимать
                В  огороде
                При  народе…
    Да,  им,  подружкам-резвушкам,  только  попадись  на их  острый  язычок.  А  ничего  тогда  такого  и  не  было. Это  в  другой  раз.  В  другой  раз,  помнится, уже   на  следующий  день  они  с  Мишей  опять  встретились.  Тут  уж  действительно  ненароком. Нечаянно.  И,   главное,  где. На  узком  мостике  через  реку,  где  им   ну  никак  не  разминуться,  лицом  к  лицу  столкнулись. Ну,  оба  в  растерянности  друг  против  дружки  и  остановились.   И  вдруг…
      И  вдруг  этот  увалень,  этот  краснеющий  и  бледнеющий  под  ее  взглядом  нескладный  мямля  без  спросу  сгреб  её в  свою  медвежью  охапку,  и…
    И  расцеловал  ее прямо  в  губы.
    В  ее  нежные-нежные,  яркие-яркие,  жарко  пылающие,  землянично-сладкие  девичьи  губы.
     И  произошло  нечто  непонятное.  Нечто  непонятное  и  невероятное.  Шарахнулись  врассыпную  сопровождавшие  Светку  птицы. И  восхищённо,  явно  с  одобрительной  радостью  счастливо  расцвели  примолкшие  в  разнотравье  полевые  цветы.  И  не  то  искры  брызнули  из  её глаз,  не  то  ослепительная  молния  полыхнула  с  небес,  хотя  в   их  сияющей  голубизне  не  было  ни  единого  облачка. И  то  ли  земля  от  раскатистого  грома,  то  ли  сама  Светка  всем  своим  затрепетавшим  телом  содрогнулась  от  неведомой  дотоле  женской  страсти.  И  на  какой-то  момент  она  обмякла  в   могучих  мишиных  объятиях,  и  вдруг…
    Она  сама  от  себя  этого  не  ожидала.  Казалось,  что  и  силы  лишилась,  и  чувств,  как  вдруг  со  всего  маху   влепила  Мише  такую  увесистую,  такую  оглушительную  пощечину,  что аж  у  самой  рука  в  плече  больно  заныла.  И  как  только  у  него,  нахалюги  такого,  его  буйная  головушка  с  плеч  не слетела!  А  Светка…
      Застеснялась  Светка,  растерялась.  Подружки,  насмешницы-пересмешницы,  любопытные  такие,  все  видели.  Подсмотрели.  И   захихикали.  И  расхохотались:
       --  Ай,  да  Светка!  Ай,  да  молодчина!  Так  его,  охальника!  Так!   Чтоб  и  другим  неповадно  было…
    А  Светка  заплакала.  Ну  что  ж  это  он вот так… Не  спросясь… Да  и  где  --  у  всех  прохожих  на  виду.  Небось  специально  подстерег  на  узком  мостике.  А   теперь  еще  и  лыбится, зубоскал,    обрадовано  потирая ушибленную  щеку. И  опять  обнял,  и  еще  жарче  расцеловал.  И…
     И  у  неё губы  вдруг  как-то  сами  собой  растянулись  в  глупую  улыбку.  И  взялись  они  за  руки,  и  пошли,  и  пошли,  точно  хмельные,  неведомо  знамо  куда.  А  тут  еще  словно  специально  для  них  над  Чудо-озером,  переливаясь  и  ярко  мерцая  семицветным  сиянием, словно  огромная  небесная  арка,  словно  небывалой  красоты  ворота  в  неведомый  мир,   встала   радуга. Зачарованные,  они  на  минуту  приостановились,  и  Миша  восторженно  прошептал:
    --  Рай-дуга…  В  рай  ворота…  Это  для  нас…  Идём! 
     Они  и  пошли. В  жизнь  пошли.  По  жизни.  Да  так  и  идут  вместе рука  об  руку,  рука  в  руке.  И  уже  пятерых  белобрысеньких  дочурок  ростят.  И  по  голубиному  воркуют.  И  мечтают,  что  будет  у  них  еще  и  белобрысенький  сынишка. А  потом  еще  и  второй. Потому  что  семья  --  это  семь я.    А  как же!
     --  А  как  же!  --  задорно  улыбается  Миша.  --  Матушка-Природа  велит.  Она  ведь  такая!  Она  любит,  чтобы  всего  по  семь  было. Семь  цветов  у  радуги.  Семь  звёзд  у  Большой  Медведицы.  Семь  звёзд  и у  Малой.  Или  вон  как  у  нашего  князя  Ивана  Гордого  семь  пядей  во  лбу…
     Миша,  когда  они  со  Светкой  поженились,  совсем  другим   стал.  Былой  его  робости  перед  ней  и  в  помине  не  осталось. Да, оказывается, это  он  перед  ней  одной  только  и  робел.  Перед  красой  ее  несказанной  дар  речи  терял.  А  на  самом  деле  он тот  еще  ухарь.  Ты  ему  палец  в  рот  не  клади.
     --  Гордый?  --  про  князя,  про  самого  князя  при  всех с   усмешечкой,  с  подначкой  спрашивает.  --  Х-ха,  а  где  же  тут  гордость,  если  сам  говорит,  что  ему  с  вами,  дуболомами,  не  управиться?  Тут,  говорит,  семь  воевод  надо.  Как  будто  и  не  знает,  что  у  семи  нянек  дитя  без  глазу.  И  что трудно  пасти  скот,  если  у  тебя  семь  ворот  и  все  в  огород.  И  если  у  одной  овечки  семь  пастухов.  И  если  на  неделе  семь  дней   да  семь  пятниц.  Да  если  семь  верст  до  небес  и  все  лесом.  Да  если  еще  семь  киселей  и  все  на  воде,  то  как  не  быть  беде…
     Озорной  он,  Миша  ее  разлюбезный, страсть  озорной. Разбитной,  за  словом  в  карман  не  лезет.  Да  и  вообще  смекалистый,  расторопный.
    Люди  дивились:  и  как  это  вы,  такие  разные,  сошлись!  И душа  в  душу  живёте.  Не  разлей  вода.
    Миша  в  ответ  только  похохатывает.  Да  и  Света  толком  объяснить  не  берется.  Просто  она  любого  человека  чувствует,  на  расстоянии  понимает  каким-то  особым  чутьём. По  исходящим  от  него  каким-то  незримым  токам.  Иногда  кое  с  кем  даже  рядом  находиться  не  может.  Вон  как с  Ёськой  Блудом.  Тьфу!  А  Миша…
        Светке  говорили,  что  такие  же  незримые  токи  исходили  и  от  нее.  Только  не  отталкивающие,  а  притягивающие. Да  такие,  что  даже  медведь,  даже  прикованные  для  приручения  дикие  звери  готовы  были  порвать  цепь,   кидаясь  к  ней,  влекомые   этими  незримыми  токами.   Светка  понимала,  что  они, эти  токи,  этот  непонятный магнетизм,  эта  колдовская  женская  сила,  влекли  к  ней  и  Мишу.  Но  Миша… 
        Миша  добрый.  Миша  ласковый. Миша  --  это  Миша.  И  красивый, видный  он  из  себя,  дюжий.  Поглядишь  со  стороны  --  медведь!  Не  зря  же  и  зовут  Михаилом.  Как  и   хозяина  здешних   лесов  --  Михаил  Топтыгин.  О!
      И  лицо  открытое,  доброе.  Суровая  жизнь  охотника  и  рыболова  рано  оставила  на  нем  свой  жесткий  след,  но  дерзко-веселые   голубые  глаза  его  смотрят  приветливо,  по-свойски  дружелюбно,  и  лишь  когда  кто-либо  ему  грубо  перечит, загораются  холодным  неукротимым  блеском.  И  все  же  наряду  с  признаками  человека  волевого,  мужественного,  сквозит  в  его  облике  какая-то  почти  женская  мягкость,  выдающая  натуру  впечатлительную  и  нежную.
      И  уж  кто-кто,  а  Светка  это  лучше  других  чувствовала  и  знала.  Он  же  её  так  любил  --  никакими  словами  не  выразишь. Да  и  зачем  слова,  к  чему  слова!  В  приливе  чувств  он  просто  обнимал  её  и  ласково-ласково,  нежно-нежно  целовал.  А  загораясь  целовал  иногда  так  страстно,  так  неистово,  что  она  только  и  могла  шепнуть:
    --  Ой,  Мишенька…  Ой…
     А  самой  в  этот  момент  не  страшно  и  умереть  было.  Ибо  --от  счастья…
      Да,  он  такой.  Он  вообще  целоваться  любит.  Загорится  --  всех  дочурок  в  порыве  любви  перецелует,  и  заглянувшего  в  гости  друга  по-медвежьи  в  объятиях  стиснет,  и  любого  знакомого  и  незнакомого   всем  что  ни  есть  лучшего  приветит.
      --  О-о-о!  --  на  радостях   вскинется, --  ты  посмотри…  Нет,  ты  только  посмотри,  кто  к  нам  пришел!  Ну,  мама-жонка,  встречай-привечай!  Что  есть  в  печи,  все  на  стол  мечи!
     И  все  знали,  что  он  всех-всех,  как  родных  любил.
     А  уж  свою  Светочку…
     И  как  только  он  её  не  назовет,  искренне  радуясь  уже  самому  звучанию  ее  имени:
     --  Светочка…  Веточка…  Светлячок…  Светулечка…  Светик  мой  ясный…  Свет  души  моей… Славяночка  моя… Радость  моя… Жизнь моя…   Судьба  моя…  Зоренька  моя…  Солнышко  мое…
    И  чем  бы  не  занимался,  что  ни  делал бы  --  дома  ли,  в  лесу  или  на  Чудо-озере,  везде  и  всюду  все  себе  под  нос  намурлыкивает:
                Мы  со  Светкой  спаруваны,
                Як  гарнятко  змалюваны.
                А  я  Светку  дорогую, 
                Где  ни  встрену,  там  целую.
     Чудак  такой!  За  такие  вот  повадки  его  Мишей  Поцелуем  прозвали.  Сперва  с  шуточками-прибауточками,  с  легкой  дружеской  усмешечкой, а  потом  так  и  пошло,  так  и  закрепилось. Прозвищем  стало,  даже  как  бы   фамилией.  А  он  вроде   как   бы  и рад  тому.  Потому  что…
     Потому  что    его  примеру  последовали  и  другие  добры  молодцы.  То  есть  стали  подстерегать  здесь,  на  этом  узком  мостике  над  рекой,  полюбившихся  девиц  для  первого  поцелуя.  Да  и  красны  девицы  тоже  не  подкачали,   начали  назначать  тут  свидания.  Понятно,  для  чего  и  зачем.  А  потом  это  и  вообще  в  обычай  вошло.  Кто  сговариваясь,  а  кто  и  без  уговору,  счастливо  улыбаясь  и  без  лишних  слов  шли. Поначалу  местные  невесты  да  бравые  кавалеры,  а  в  дальнейшем  и  из  окрестных  деревень.  Поскольку  молва  далеко  разнеслась,  что  после  первого  поцелуя  на  этом  скромном  мостике  складывались  крепкие,  счастливые  семьи. 
       Так  мостик  тот,  на  котором  он её  первый  раз  поцеловал,   и  ныне  зовут  -- Поцелуев  мост.  Да  там  и   место  такое   --  тихое,  укромное.  Парни  и  девушки  частенько  любят  по  вечерам  сходиться  туда.   Шутят,  тайные  желания  загадывают,  венки  в  реку  бросают,  целуются. И,  по  слухам,  сбывается  поверье, что  кто  первый  раз поцеловал  девушку  на  мостике  Поцелуев,  у  того  непременно  семейная  жизнь удачно  заладится.
     И  еще  такая  побаска  пошла:
     --  Ты  куда  меня  повел,  такую  молодую?
    --  На  ту  сторону  реки,  иди  не  разговаривай!
     А  зачем,  на  самом-то  деле,  лишние  тары-бары, когда  лучше  всяких  самых  красивых  слов  о  любви  говорят  глаза.
    --  Дурной  пример  заразителен,  --  ворчливо  кривят   губы  вечно  чем-то  недовольные  седые  привереды. Как  будто  сами    в  молодости  вприпрыжку  туда  не  бегали.  Да  и  вообще,  что  ж  в  том  дурного,  если  как  ясные  небеса  над  тихоструйной  рекой  светлы  и  чисты   и  помыслы  влюбленных,  и  чувства. И  если  как   чистая-чистая  родниковая   вода  в  родной  реке  светлы  и  чисты  помыслы  тех,  кто решил  навек  соединить  свои  судьбы!
     И  потом  это  же  не  чья-то  досужая  выдумка,  а  самая  что  ни  на  есть взаправдашняя  примета.  Люди  на  протяжении  многих  лет  заприметили, что  это  действительно  так.  У  всех,  кто  начинал  свою  семейную  жизнь  с  первого  поцелуя  на  этом  благословенном  мостике,  муж  да  жена  живут  потом  в  полном  согласии,  душа  в  душу.  И  детишек-ребятишек  у  них  --  семеро  по  лавкам. И  все  такие  здоровенькие,  такие  красивенькие  --  глаз  не  отвести. А  если  кто  страдает  от  несчастной  любви,  и  у  того  всё  вскоре  наладится,  надо  только  на  этом  мостике  реке  Гдовке  свою  просьбу  шепнуть.
    Ну,  поскольку  семьи  были  многодетными,  то  и  молодежи  много.  Так  что  зачастую  собравшимся  на  мостике  и  не  всем  хватало  места.  И  тогда,  разбиваясь  на  парочки,  добры  молодцы  да  красны  девицы  уединялись  в  зелени  сирени  и  молодых  бальзамических  тополей,  густо  разросшихся  повдоль  протоптанной  сюда  стежки-дорожки.  А  соловьёв-то  там  тихими  вечерами,  а  соловьёв! А  воркующий  шепоток!  А  томные  вздохи!  И  стали  называть  эту  укромную  аллейку  Аллеей  Вздохов.  Ну,  это  с  легкой  усмешечкой,  с  иронией.  А  всерьёз,  на  полном  серьёзе  уважительно  зовут  Аллеей   Любви. 
     А  все  ведь  от  Миши  пошло.  После  того  его  поцелуя.  Он  потом  ее  еще  много  раз  целовал, и  посейчас  целует,  но  все  равно  тот  первый  его  поцелуй  ей  больше  всего  запомнился.  Уж  сколько  лет  прошло,  сколько  воды  в  реке  утекло,  а  словно  вчера  это  было. Как  же  после  всего  этого  рассказать    ему   про  свой  противный  сон?  Обычно  она  ничего  от  него  не  таила,  а  тут…
     Вот  ведь  незадача!  И  вся  беда    в  том,  что  кому-то  же  рассказать  надо.  Светка  чувствовала,  была  уверена,  что  этот  неприятный  сон  что-то  противное,  неприятное  и  предвещал.  И  надо   было  с  кем-то  поделиться  своими   сомнениями  и  тревогами,  поговорить.  Ну  хоть  кому-нибудь  излить  душу.  Кому? 
       Скажи  секрет  лучше  подушке,  чем  подружке,  учила,  предостерегала  бабушка  Василиса  Премудрая.  Вот  разве  что  ей,  бабушке… Конечно  же,  бабушке!   Кто  еще  ближе  и  роднее,  кто  ее  больше  всех  любит?   Конечно  же,  бабушка!  Бабушка  Василиса.  Василиса  Премудрая,  как  все  её  называют.  Вот  с  ней  и  пошептаться  надо,  и  посоветоваться.
       И   как  это  ей  сразу  не  пришло  в  голову!  Бабушка   и  выслушает  с  сочувствием,  и  с  пониманием  отнесётся,  и  разобраться  поможет.  А  уж  весте  с  ней  они  и  поймут,  и  разгадают,  что  к  чему.
                ЗАВЕТЫ БАБУШКИ ВАСИЛИСЫ
     Строга  была  бабушка  Василиса,  ох,  строга.  Она  Светку  любила.  Кажется,  больше  всех  любила,  крепче  всех   любила,  сильнее  всех  любила,   но  никогда  не  баловала.
     И  Светка   бабушку  больше  всех  любила.  Очень-очень  любила,  но…
     Но  --   и   побаивалась.
    Как  и все-все,  пожалуй,  побаивались.  Очень-очень  строгой  она  была,  бабушка   Василиса.  Суровой.
     А  всё  потому,  что  жизнь  ей  такая,  судьба  такая  на  её долю  выпала  -  суровая.  Войну  она  пережила.  Войну.   Вражеское  нападение.  Как сказали  бы  сегодня,  норманнско-варяжскую  оккупацию.
    --  Ты-то  вот  и  не  помнишь,  и  не  понимаешь,  отчего   ты  у  нас такая   бледненькая,  --  горестно  вздыхая,  говорила  она  Светке.  --  А   я знаю.  От  зарева  это.  От  зарева…
     Какого  такого  зарева?  А  такого.  Когда  норманны  наш  поселок  подожгли,  такой  пожар  страшный  был,  такое  зарево  было  --   о-о, в  полнеба.
     --  А  кто  это  такие  эти…  как  их… Ну,  норманны?  --  спрашивала  Светка.
     --  Как  кто?  Басурманы,  вот  кто.  Как  они  о  себе  говорят,  северные  люди.  Или  ещё  --  варяги.
     --  Интересно  как!  Ещё  и  варяги.  Это  почему?
     --  А  потому,  что  вороги.  Враги.
    --  Враги?  А  почему  враги?
    --  А  потому,  что  воры.  Ворье. Ворюги.  Про  них  же  у  нас как  говорят?  Говорят,   пришли  норманны  -- береги  карманы.
     --  А   почему?
    --  Потому,   что  по  натуре  такие.  Они искони только    воровством  и  жили.  И  постоянно  нас  обкрадывали.  Злые,  словом,  люди,  их  и  людьми-то  называть  не  хочется.  Не  заслуживают  они  того.  Звери,  а  не  люди.  Зверюги.  Бандюги.  Разбойники. Хищники!
     --  А  почему?
    --  А  потому,  что  они  на  нас  постоянно  нападали,  постоянно  с  нами  враждовали.
    --  А  почему?
    --  Ах  ты, внучка-почемучка!  Ах  ты,  маленькая!  Ах  ты, миленькая.  А  потому,  что  разбойники.  Грабители. Припрутся  оттуда,  со  своего  дикого  Севера,  голодные,  злые.  Ну,  волки  алчные,  а  не  люди.  И  одеты-то  в  звериные  шкуры,  и  под  пропотевшей  одеждой  такие  худющие  да  вонючие,  словно  век  не  мылись.  А  вшей  на  них,  а  гнид  --  тьфу!  И  противно,  и  жалко. Ну,  напоишь,  накормишь,  еще  и  на  обратную  дорогу  всяких  разных  припасов  дашь,  так  хоть  бы  спасибо сказали . Где  там! Ну,  я  же  говорю,  по  натуре  своей    такие.  Ненасытные.  Злобные.  Даже   вспоминать-то  про  них  не  хочется. Тошно.
      Мы  ведь  как  жили,  как  привыкли  жить?  Мы    работали,  не  покладая  рук,  трудились.  И  хлеб выращивали,  и  огороды  возделывали,  и  в  лес  на  добычу  ходили,  и  в  Чудо-озеро  на  рыбалку.  Так  что  у  нас  все  было.  И  мы  старались  любого  путника-странника  встретить-приветить  по-людски,  по-человечески. И  обогреть, и  напоить-накормить, и  ночлег  предоставить. А  как  же.  А   когда  в  поле  или  в лес,  или  в  озеро  надолго  уходили,  так  мы  и  двери-то  в  наших  избах  не  запирали.  И  ещё  на    на  столе   непочатую  буханку  хлеба  оставляли   и    жбан  молока.  Чтобы  покушать  было  что,  если  кто  невзначай  забредёт.  А  зимней  ночью,  когда  темь  непроглядная,  на  окошко  светильник  ставили.  Чтобы  сбившийся  с  пути-дороги  видел,  куда  идти.  А  они…
    По первости-то,  поначалу   поодиночке   воровски,  звериными  тропами   втихаря  в  поселок  прокрадывались,  а  потом… Потом  уже  целыми  бандитскими  шайками  шастать  стали.  Ну,  тут  и  вовсе  беда.  С  ножами,  с  мечами  в  руках… Да  как  почнут  орать-вопить,  ну  --  зверьё, по-волчьи  рычат-воют.  Оглоеды!  Страшилища.  Ну,  прямо-таки  из  загробного  царства  явились. Упыри. Вурдалаки. Кровососы! И  то  им  задаром  отдай,  и  это.  И  сколько  чего  ни  дашь,    все  мало.  А  не  отдашь  --  и  убьют,  загрызут,  чего  доброго, растерзают. Да-а!  Я  же  говорю  --  изверги  Так  вот.
      Нашим-то  славянорусам  и  в  голову  такого  не   приходило,  чтобы  по  окрестным  поселениям  воровством  да  грабежом  заниматься.  Стыдно  же.  Позорно.  Ну,  в  тот  раз  им  так и  сказали.  Здоровенные,  мол,  лоботрясы,  а  вместо того,  чтобы  работать,  честным  трудом  прокорм  добывать,  разбойничаете.  В  лесу  эвон  сколько  дичи,  в  Чудо-озере   рыбы,  только  не  ленись,  лови,  а  вы…
    Ну,  тут  они  и  взъярились.  Злее  злых  диких  зверей  ринулись  по  дворам   грабить,  убивать,  жечь,  насильничать.  Поневоле  нашим  мужикам  пришлось  за  топоры  да  за  рогатины  браться. Топорами-то  лес  рубили,    с  рогатинами  обычно  в  лес  на  медведей  охотиться  ходили,  а  тут  --  на  людей.   Ну,  волки   --  волки  и  есть.  Они  же  добрых  слов  не  понимают,  им  только  дубина  нужна.
   Ну  да,   я  же и  говорю,  разве  это  люди?  Звери!  Даже  хуже.  И  морды-то  у  них  какие! Горбоносые,  туполобые.  Тьфу!  Гады безмозглые.   Идолы  дурнопотылые.  А    свирепые,   а  кровожадные  --  у-у…
     Да  и  то  сказать  --  откуда,  из  каких  дебрей,  с  какой  стороны  заявились.  И  край-то у  них  такой  --  голые  скалы.   Негде  хотя  бы  репы  посадить.  Так  что  и  жизнь  у  них  там  такая.  Не  жизнь,  а  прямо-таки каменный  век.  Оттого  и  каменные  лбы.  И  сердца  каменные.  И  души.  Ну   ничего  человеческого.  Одни звериные  инстинкты  --  пожрать,  поспать,  за   каждой   юбкой   побегать, да   жажда  крови.  И  когда  наши  мужики  дали  им  отпор, так   эти  головорезы   что  сделали?  Они  наш  поселок   подожгли.  Бегают,  значит,  с  факелами  от   избы  к  избе          и    поджигают.  А  крыши-то  соломенные.  А  стены-то  деревянные.  Ну    и  заполыхал  пожар.  Зарево  -- в   полнеба.
       --  А  я  помню,  --  встрепенулась  Светка.  --  Помню. 
      --  Ну,  это  тебе  кажется,  что  помнишь,  -- возразила  бабушка  Василиса.  --  Помнить  ты  ничего  не  можешь.  Тебя  маманька   твоя  той  ночью-то  только-только  что  родила.  Да  вот  как  побледнела  она  тогда  от  страха,  так  и  ты  такой  бледненькой  уродилась.  Ладно,  еще  живы  остались,  уцелели.  А  то  ведь  могли  и  погибнуть…
      --  А  вот  и  помню!  --  упрямо  стояла  на  своем  Светка.  --  Ведь  ой  что  творилось!   Во  страху-то  было!  Во   страшно!  Ужас!  Собаки,  помню,  лают.  Куры  кудахчут.  Свиньи  визжат.  Коровы  мычат.  Кони  ржут.  Бабы  голосят,  дети… Да  так  горько,  так  жалобно.  И  зарево…  Ночь,  а  светло,  как   в  яркий  солнечный  день  стало.
      --  Ты  гляди-ка,  и  впрямь  помнишь.  Во  страх-то  как  в  память  врезается. Или,  может,  по  наследству это  тебе  мамин    передался.  От  материнского  потрясения.  Она  ведь  тогда  не  только  за  себя,  но  и  за  тебя,  за  твою  жизнь  боялась.  Шутка  ли,  на  сносях  ходила,  время  вот-вот  разрешиться,  а  тут...
      А   цепные  псы…  Да,  было,  было.  Хотя   почему-то  и  с  запозданием,  но  так  заливались,  что  ай-ай!  И   стон  со  всех  сторон, крики,  вопли…  Сама  земля  стоном  стонала.  Аж  кровь  в  жилах  стыла.  На  что  у  тех  извергов  и  расчет  был.  Ведь    избы-то  горят,  полыхают,  а  там  кто?  А  там  беспомощная  малышня,  немощные  старики,  да  вот  вроде  твоей  мамы.  Мужикам-то  что  делать,  с  ворюгами-ворогами  драться,  или  семьи  спасать?!  Да  и  погибли  уже  многие.    Нападение  же  неожиданным  было,  внезапным.  Так  что  многие,  ох,  многие  полегли.  И  не  только  мужики,  но  и  юноши.  И  даже  бабы.  И  даже  девушки.
      --  А  сколько  еще  искалеченных  осталось…  А  сколько  вдов  и  сирот…  О-о-о…
      --  Да,  Светочка,  да,  деточка,  да!  Все  дрались.  Все  защищались. И  еще  неизвестно,  чем  бы  все  закончилось,  да  только  эти  сволочи  коварством  взяли,  подлостью.  Я  же  тебе  говорю,  такой  пожар  учинили,  такой  пожар  --  тут  уж  не  до  боя.  Детей  спасать  надо.  Дети  же,  дети..
      А  потом  как  победители  от    побеждённых  норманны  потребовали  дань  им  платить.  До  нитки  обобрали,  и  поныне  обирают, а  что  поделаешь?  Лучше  откупиться  от   извергов,  чем  кровь  проливать…   
      Ну,  это-то  Светка  не  только  помнила  --  своими  глазами  видела.  И  горько,  ох,  горько  было  видеть, как  норманны-варяги  своими  разбойными  дружинами  ходили   к  нам  в  полюдье,  то  есть  по  людям,  требуя  отдавать  им  свое,  нажитое  нелегким  трудом  добро,  и  подводу  за  подводой  гнали  из  поселка.  Возами  дань  увозили.  Обозами.
      И  чего  только  не  было  навалено  на  скрипучие,  тяжело  груженые телеги!
     Горой  --  мешки  с  золотой  пшеницей,  отборным  ячменем  да  рожью.   Жирные,  ароматно  пахучие  медвежьи  окорока  да  кабаньи  туши. Короба  копченой,  вяленой  да  сушеной  рыбы.  Кадки   с  соленой  лосятиной  да  говядиной. Бадьи  коровьего  масла.  Бочки  меда.  Битые гуси, утки, куры…               Нет,  всего  и  не  сочтешь,  и  не перечислишь.  У  них  там,  в  их  гиблом   северном  краю,  вечно  во  всем  нехватка.  А  работать,  как  славянороссы,  они  не  хотели.  Ленились.  Грабить-то  легче,  чем  до  седьмого  пота  с утра до  ночи  вкалывать. Вот  и  гребли  чужое,  грабили,  волокли.  И  все  им  мало,  мало,  мало.
     Крупный  рогатый  скот  живьем  гнали.  Нахлестывая  бичами  и  язвя  копьями,  угоняли  табуны  любовно  выхоленных  лошадей.  Нещадно  секли  кнутами  понуро  бредущих  коров.  А  самым  мучительным  было  видеть,  как  оскорбляли  и  унижали  наших  славянорусских  женщин  и  девушек.
     Как   писал  «отец  истории»  Геродот,  «варвары  нагло  оскорбляли  целомудрие  жен  словенских  и  впрягали  их  вместо  коней  в  свои  телеги…» 
     Светка-то  тогда   мала  была,  кое-чего  не  понимала,  а  вот  Варюха  Горюха…
      Нет,  она  ничего  никогда  никому  не  рассказывала,  ничего  не  говорила,  но  ее  молчание  было  красноречивее  всяких  слов.  Она  молчала,  как  немая. Молчала,  как  каменная.   Как  молчат  замшелые,  вросшие  в  землю  гранитные  валуны.  И  только  глаза…
     О,  эти  огромные,  словно  навек  расширенные  от  когда-то  пережитого  ужаса,  полные  глубоко  затаенной  боли,  вечно грустные-грустные,  неулыбчивые  глаза!  И  сколько  же  было  выплаканных  и  еще  не  выплаканных  слез!  Ведь  такое  горе,  такое  горе  довелось  пережить!  И  отец,  и  пятеро  старших  братьев  Варюхи  Горюхи  смертью  храбрых  полегли  в  ту  страшную  ночь.  И  маму, маму   эти  изверги  замучили.   И  никого  из  её родственников  в  живых  не  осталось.  И  не  перед  кем  было  выплакаться,  некому  было  по-свойски  поведать  о  том,  как  надругались  над  ней,  тогда  еще  несовершеннолетней.
     Она  не  просто  каменно  молчала.  Она  молчала  так,  что  и  другим,  кто  на  неё  смотрел,  становилось  не  по   себе.  Уж  на  что  был  разговорчив  да  скор  на  шутку-прибаутку  разудалый  молотобоец  Илья  Громобой,  но  и  тому  не  удавалось  хоть  как-то  отвлечь  ее  от  горьких  воспоминаний,  вызвать  на  её лице  улыбку.
      --  Ну  что  ты,  как  каменная?!  --  обронил  он  однажды,  не  выдержав.
      --  Да,  каменная!  Каменная!  --  с  вызовом,  с  великой  душевной  болью  выдохнула.  --  Потому что…  Потому  что  с  тех  пор  и  окаменела.  Уж  лучше  бы  они  меня  убили  тогда. 
     --  Родненькая, --  пожалел,  посочувствовал  Илья.  И  вдруг  посватался:  --   Варенька,  милая,  голуба  моя,  люба  моя,  а  выходи  за  меня  замуж, а?   
       А  у  нее  и  слёзы  ручьем: 
      --   Я  же…  Я  же  их  волчьи  морды …  Они  же  каждую  ночь  надо  мной  мерещатся…  И  стыд… Понимаешь…
      И  расплакалась.  Мало  слов,  а  горя  реченька,  горя  реченька  бездонная.  И  долго-долго  плакала,  уткнувшись  лицом  в  его  богатырское  плечо  и  сотрясаясь  всем  телом  от  нахлынувших  рыданий.    Тоску  свою,  боль  свою  душевную  изливала.  И  что  от  всех  таила,  захлебываясь  слезами,  ему  поведала.  Её, эту  изящную,  стройную,  величественно  красивую  женщину,  считали  гордой  и  надменной,  ибо  от  нее  за  версту  веяло  угрюмостью  и,  как  казалось,  высокомерием.  И  никто  и  никогда  не  видел  на  её  строгом  лице  хотя  бы  мимолетно  скользнувшей  улыбки,  не  слышал  её  смеха.  Неулыба!  Несмеяна.   А  во  взгляде  такая  боль,  словно  она  была  больна  какой-то  неизлечимой  болезнью.
       Одним  словом,  Варюха  Горюха.  И  оставалось  только  подивиться,  что  её  полюбил  и  взял  в  жены  такой  разбитной  да  развеселый  добрый  молодец,  каким  был  молотобоец  Илья  Громобой.  Короткие,  из  воловьей  кожи,  до  лоска  заношенные  штаны,  обнажая  мощные, жилистые  ноги, выказывали  тугие  глыбы  икр.  Широченные  плечи  распирали  вечно  расстегнутую  на  груди  полотняную  рубаху.  А  на  голове,  едва  не  сваливаясь  с  густых  русых  кудрей, залихватски  набекрень  сидела  какая-то  легкомысленная  шапчонка.  Между  тем,  работая  подручным  у  таких  искусных  славянорусских  умельцев,  как  Кузьма  Железняк  и   Дамиан  Гвоздила,  он  не  просто  перенял,  а  даже  превзошел  их  в  мастерстве. После  чего  вот  уже  сколько  лет  с  Иваном  Кузнецом  ковал  в  поселковой  кузнице  серпы,  сохи,  косы  да  прочий  сельскохозяйственный  инвентарь  и   домашнюю  утварь.
      Ну,  как  говорится,  тот  еще  был  мужик,  на  виду.  Посмотришь  на  его  озаренное  приветливой  улыбкой  лицо,  и  сам  ни  с  того  ни  сего  заулыбаешься.  И  тем  паче  любопытно  было,  что  и  за  таким  мужем  Варюха  Горюха   жила  в  какой-то  непонятной  угрюмости.
     Ну,  что  ж,  чужая  душа  -  потёмки.  Да  и  негоже  это,  нехорошо,  куда  тебя  не  просят,  свой  любопытный  нос  совать.  Да  никто  и  не  лез,  никто  и  не  расспрашивал  их  ни  о  чем.  Живут  себе  тихо-мирно,  ну  и  пусть  живут.  У  каждого  же  есть  какие-то  странности,  что-то  своё,  глубоко  личное,  и  никто  в  поселке,  даже   лучшая  подруга  Варюхи  Горюхи  Тоня  Тихоня,  не  знали  и  не  ведали,  какая   глубокая  и   какая  горькая  тайна  делала  замечательную  славянорусскую   красавицу   вечно  печальной  и  молчаливой.
     Один  только  Илья  Громобой  знал.  Почему  и  любил.  Или,  может,  жалел.  А  вернее  и  любил,  и  жалел.  Как  умеет  жалеть  сильный  духом,  благородный,  по-настоящему  мужественный  славянорусский  мужик.  Да  ещё  и  трудно  сказать,  что  в  жизни  важнее  --  любовь  или  жалость.
     А  о  своей  тайне  Варюха  Горюха  сама  ему  и  рассказала   в  тот  день,  когда  он   к  ней  посватался.  В  раннем  её  девичестве,  в  ту  ночь,  когда  ворюги-варяги   захватили  и  спалили  их  поселок,  эти  твари  над  ней  жестоко  надругались.  Ах,  как  она   отчаянно  отбивалась,  как  вырывалась!  Девчушечка  еще,  крохотуля,  девица-юница,  а  какой  дала  отпор!  Кричала,  визжала,  выла,  колотила  руками  и  ногами,  норовя  угодить  насильнику  в  пах, искусала  и  исцарапала  его  потную  морду.  Увы!  Это  лишь  распалило  звериную  похоть.  Да  и  не  один  он  был. И  оставили  они  её  лишь  тогда,  когда  она  обмерла  в  бессилии  бездыханной.
      --  Уж  лучше  бы  я  тогда  умерла…  На  белый  свет  не  могу  смотреть. 
      --  Да  теперь-то,  теперь-то  чего  плачешь-убиваешься?  Это  вон  Клавка-мерзавка…  Ей  пусть  будет  стыдно,  что  она  с  ними  якшалась.  А  ты-то  что?  Ты-то  не  виновата.
     --  Вот,  не  понимаешь…  И  никто  не  понимает.  А  они же… Они  не  только  тело  --  душу  мне   на  всю  жизнь  опоганили.  Понимаешь,  душу…
      И  на  всю  жизнь  затаились  в  исстрадавшемся  сердце  жгучий   стыд  и  обида.  И  --  ненависть.  Стыд  и  обида  --  на  себя,  что  не  смогла,  не  сумела  отбиться,  а  ненависть…  На  всех  мужиков  смотреть  не  могла,  всех  ненавидела,  всех  презирала.  Всех  --  и  чужих,  и  своих.  Своих,  пожалуй,  еще  больше,  чем  чужих.  Потому  что  допустили,  позволили   чужакам   захватить  и  сжечь  дотла  их  поселок,  да  ещё  и  над  ней  надругаться.
     С  годами  это  ее  чувство  лишь  усиливалось,  так  как  вороги-варяги  продолжали   в  их  поселке  хозяйничать.  Мало  того,  что  спалили  все  терема,  все  избы,  все  хоромы,   так  заставили  ещё  и  дань  им  выплачивать.  Заявятся  своей  бандитской  шайкой  --  и  пошли  по    дворам:  «ама-зонка,  дай!»  Толком-то  выговорить,  сказать  «мама-жонка»  не  умеют,  а  только  и   знают:  дай! Хлеба   --  дай!  Сало-масло-яйки  --  дай!   Рыбки  --  дай!  Только  и  слышишь:  дай  да  дай!  Наши-то  поселковые  мужики  почти  все  перебиты,  покалечены  да  изувечены, а  кто  уцелел  --   вроде  как  и  не  мужик  уже.  Как  поглядишь,  в  ветхих  избушках  --  одни  горемычные  вдовы  с  ребятишками.
   --  Ну,  ты  уж  совсем…  Я  же  тебя  в  обиду  не  дам.  Пусть  только  кто  хоть  пальцем  посмеет  тронуть!
    --  А   я  и не  за  себя,  не  за  одну  только  себя…   И  дети…  Дети     же  растут…  Девочки  наши…
        И  острее  ножа  пронзили  эти  ее  слова  чуткое  сердце  Ильи  Громобоя.  И  еще  громче,  еще  яростнее  бухал,  громче  грома  громыхал  в  кузнице  его  пудовый  молот.  Ух!  Ух!  Ах!  Ах!  Гах!  Бах!  И  окалина,  искры  от  раскаленного  добела  металла  молниями  летели.  Ибо  теперь  ковал  он  с  Иваном  Кузнецом  не  только   серпы  да  косы, но  и  мечи  булатные,  и  палицы  да  булавы  железные.  И  щиты  богатырские  изготавливал,  и  кольчуги  из  колец  металлических  для  ратников.  И  колчаны,  и  луки,  и  наконечники для  стрел  и  копий  без  устали  мастерил. 
       Оружие  ковал.
       Оружие  возмездия.
       А  Клавку-мерзавку  не  один  только  он  --  весь  поселок  презирал.  Вообще-то  кое-кто  из  сердобольных  говорил,  что  и  её можно  понять.  Она,    мол,  тоже  не  от  доброй  жизни  с  норманнами  шашни  водила.  Боялась.  За  жизнь  свою  боялась,  себя  от  насильников  вот  так  вот  спасала.  Но  другие  были  непреклонны  и  называли  ее  варяжской   сучкой.
      А  бабушка  Василиса…  Светка  знала,  что  бабушку  Василису  все  Премудрой  зовут  и  все  её  слушаются.  Даже  Мария  Краса  Русая  Коса.  И  Светка  внимательно  слушала  и  слушалась,  когда  она  на  свой  лад  её  остерегала:
      --  Смотри,  внученька,  смотри,  пуще  глаза  береги  свою  девичью  честь!  Помни,  постоянно  помни,  что  ты  женщина.  А  женщина  --  это  будущая  мать.  Как  нас  зовут  наши  мужики,  мама-жонка.  А  мама-жонка  потому  и  мама-жонка,  что  ей  женой  быть  и  мамой. Как  матушка-Природа  велит.  Как  нам  наши  божественные  праотец  Род  и  праматерь  Рожаница  завещали, детей  рожать,  наш  славянорусский  род,  наше  славянорусское  племя  продолжать.
      А  у  Клавки  разве  славянорусские  дети?  Про  неё  же  что  говорят?   Замужем, говорят,  не  была,  а  без  мужа  не  спала.  Чем  она  ещё  и  выхваляется.  Вот,  мол,  я  какая!
      --  Нет,  баушка,  она  не    выхваляется,  Она  говорит,  что    по   доброте  своей  не  может  отказать,  если  просят.  И  что  ей  их  жалко.  Они  же  тоже   хочут…
   --  Не  хочут,  надо  правильно  говорить,  а  хотят. Так  мало  ли  кто  чего  хочет?  На  всякое  хотение  есть  терпение.  Да  и  потом   что   из  этой  её  жалости  вышло?  Пожалела  баба  весь  лес,  а  её  ни  один  бес.  Детей   полную  избу  нагуляла,  а  ростит  одна. Да   ещё  ты  только  погляди,  на  кого  они  похожи.   Костлявые,  один  к  одному,  туполобые,  горбоносые.  Вылитые  норманны-варяги. Истинно,  как  у  суки.  Сама  черная, а  щенки,  глядишь,  самые  разномастные.  Потому  что  кобели  разные  свадьбу  водили.  Так  и  у  нее.  Нагуляла.  Набегала.
      --  Она  говорит,  что   если  мужчина  похож  даже  на  обезъяну,  то  он  уже  красавец.
     --  Тьфу! А  ты  хотела  бы,  чтобы  твои  дети  были  похожи  на  обезьяну?  По-моему,  обезьяны  тоже  сами  себе  уродами  не  кажутся,  так  вот  пусть  сами  промеж  собой  и  тешатся.  А  люди… И  потом  ты  знаешь,  почему   у  нас,  славянороссов,  дети  красивые?   А  потому,  что  люди  наши  красивые  не  только  внешне,  но  и  душой. Лицо  --  зеркало  души.  А  эти  чужаки…
      --  Но  ведь  теперь-то  она  с  ними  не  водится.
     --  Ага,  присмирела,  дура  бесстыжая. Или  поизносилась  раньше  времени,  вот  и  поджала  сучий  хвост. Да  только  понимаешь,  наш  женский  организм  такой,  что  все  последующие  дети  задаются  в   того,  кто  у  тебя  первым  был.  Знаешь,  это  непонятно,  это  страшно,  но    дитя    родится  похожим  даже   на  того,  о  ком  женщина,  будучи  в  положении,  часто  вспоминает,  о  ком  много  думает.  Особенно  если  во  сне  видит. Хотя  она  с  ним  и  не  жила,  и  не  живет.
       Во  как!  Иной  раз и   сама  красавица  писаная,  и  муж  на  загляденье,  а  такого  урода  родит,  что  все   только   ахают.  И  гадают  потом,  мол,  ни  в  мать,  ни  в  отца,  а  в  проезжего  молодца.  А  оно,  может,  и  так,  может,  и  в  проезжего,  если  он  ей  чем-то  глянулся,  и  она  потом  о  нем  втихаря  думала. 
       Да,  девонька,  да,  внученька,  да.  Вы-то,  молодые,  на  беду,  об  этом  и  понятия  не имеете,  а  оно  эвон  что.  Поэтому  если  ты  под  сердцем   ребёночка  носишь,  не  смей  ни  о  каком  чужом  мужике  и  вспоминать  лишний  раз.  Да  и  зачем?  У  тебя   же  муж   есть.  Да  и  вообще, Я  же  тебе  уже  объясняла,    любая  девушка  должна  постоянно  помнить,  что  она   вырастет  и  станет  мамой-жонкой.  Чьей-то  женой  и  чьей-то  матерью.  Да  еще  и  не  одного  новорожденного,  не  одного,  а  хотя  бы  двух  муженьку  подарит.  Всем  же  хочется  мальчика  да  девочку  заиметь.  А  умным  людям  и  поболе.  И  чтобы  все  детишки  красивенькими  да  здоровенькими  росли.  И   зависит  это  от  мамы. Поэтому ей,  маме-жонке,  надо   особо  ответственной  быть.  С  самых  ранних  девических  лет. Не  зря  же  сказано,  береги  честь  смолоду.
      Да,   внученька,  да,  родненькая,  да,  миленькая,  да. Уж  что-что,  а   это   ты  звсегда  первее  всего  помнить  должна.  Или  забыла,  о  чем  прежде  всего  спрашивают  у  родителей,  когда  их  дочь  сватают!
     --  Ну,  это…  Чиста  ли  девка  ваша?
     --  Во-о-от!  Вот  о  какой  чистоте  речь.
      --  А  я   думала,  спрашивают,  мылась  ли  в  бане, купалась  ли, умывалась  ли.
     --  Эх,  молодо-зелено!  Многотысячелетняя  история  человечества  не  зря  же  требует  девственной  чистоты  невесты.  Только  так  будет  здоровое  потомство,  способное  продлить  жизнь  рода-племени.
      --   А  про  жениха?   
      --  И  про  жениха.  А  то  иной,  глядишь,  и  смазливый,  привлекательный  такой,  а  нутром  поганый.  Кобель  он  и  есть  кобель.  Им-то,  кобелям,  не  рожать,  сунул-вынул  да  бежать, --  криво  ухмыльнулась  бабушка.   --  И  еще,  чего  доброго,  в  нутрях-то  с  заразой  какой.   Я, может,  и  не  совсем  пристойно  выражаюсь,  но   правду  говорю.  Так  что  ты  гулять-то  гуляй,  да  головы  не  теряй.  Знай,  постоянно  помни,  что  от  природы  наше  бабье    предназначение  такое:  детей  рожать.  И  не  просто  предназначение,  а  --  долг. Женский  долг  дать  жизнь  новой  жизни.  И  не  гнилой,  не  хилой,  не  немощной,  а   здоровой. И   вообще  женщине-матери  не  кобель  нужен,  а  кормилец  семьи.  А  кобель  разве  может  понять,  как  любой  девице  хочется  стать  матерью?  И  разве  может  он  понять,  какое  это  для  нее  счастье  --  стать  матерью,  быть  матерью?  И  где  уж  ему  понять,  какое  это  счастье  --  быть  любящим  отцом!
     --  Х-хе,  а  кобель  разве  понимает,  что  такое  любовь?  А  без  любви  какая  семья?    Мужчина  и  женщина,  муж  и  жена  --  это  же  два  разных  человека.  И  как-то  так  искони  повелось,  что  кто-то  из  двоих  супругов  старается  подчинить  себе  другого.  Так  что  семейная  жизнь  --  это  прямо-таки  каждодневный  поединок супруги с супругом, борьба. Да, да,  всю  жизнь  --  борьба.  Да  такая,  что кое у кого  до  рукопашных  схваток  переходит,  в домашнюю  войну  превращается.
      Вот  говорят,  что  если  муж  идет  к  другой, значит  у  нее пироги  вкуснее.  Так  ты,   если  не хочешь  без  мужа  остаться,  умей  и  пироги  печь,  и  понимать  иносказание. А главное  --  без распрей, миролюбиво с мужем жить.
      -- Нет,  без  любви  не  семья.   А  пуще  всего  чужаков  инородцев  сторонись!  --  внушала,  остерегала  бабушка.  И  такие  рассказывала  страсти  --  ужас!  Где-то   за  семью  горами,  за  семью  морями,  в   некотором  царстве,  в  некотором  государстве  живут  чёрные  люди.
    --   Чёрные?   --  пугалась  Светка.  --  Совсем-совсем  чёрные?
     --  Да-а.  И  руки  у  них  чёрные,  и  волосы  чёрные,  и  лицо,  словно  сажей  намазанное.  Зубы  только,  одни  только  зубы  белые.  Но   оттого,  когда  улыбаются, так  они  с   виду  еще   страшнее. 
     --  Выдумываешь,  --  не  верила  Светка.  --  Откуда  ты  знаешь?  Ты  что,  была  там?
     --  Говорю,  значит,  знаю,  - сердилась  бабушка.  --  А  ты  слушай,  да  не  перебивай. Если  хочешь  знать,  так  когда-то  встарь  и  промеж  нас  один  такой  жил.   Приблудный,  вот  как  Ёська  Блуд.  У  нас-то  люди  добрые,  жалостливые.  Особливо  бабы.  Ну  и    приютили,  пригрели.   Думали,  отмоют  в  нашей  русской  бане,  отбелят,  как  домотканые  холсты  в  пруду,  да  где там.  Сказано  же,  чёрного  кобеля   не  отмоешь  добела.  А  он,  паршивец,  кобелём  и  оказался.  Подкатился  к  одной  нашей  жалостливой  молодке,  да  чёрного  ребятеночка  и  прибрюхатил.
      --   Ой,  --   не  то  радуясь,  не   то  еще  больше  пугаясь,  вскидывалась  Светка.  --  Чёрненького?  Ну  и  что?
      --  А  то!  Не  любил  он  её,  вот  что.  Не  может  мужик  чужой  породы  по-настоящему  любить  женщину  иного  племени.  Просто  как  самца  любопытство  его  тянет,  а  чтобы  душу  понять  да  душа  в  душу  потом  в  семье  с  ней  жить,  нет,  этого  не  дождёшься. Сама  же  знаешь, змея  соловьём  не  поёт.  Ну  и  этот  так. И  однажды  удрал  куда-то.  Наверно,  подался  в   свои  края.  Да  ладно  бы  один,  а  то  ещё  и  сынишку  своего  черномазого  украл.
       --  Ой,  баушка! --  Светка  аж  ладошками  всплеснула.  --  Ой!  Это  ж  надо, а?
        --  Вот  тебе  и  ой.  Но  это  еще  не  вся  беда.  Сказано  же,  не  та  беда,  что  позади,  а  та,  что  впереди. Молодка  поплакала-поплакала,  погоревала-погоревала,  да  и  другого  хахаля  нашла.  И  вроде  нормально,  согласно  жить  стали,  только  вдруг  рождается  у  них  чёрненький ребятёночек.  Чрненький-чёрненький.  И  ручки,  и  ножки, и  животик,  и  личико  --  все  ну  вот  тебе словно  сажей  вымазано.
       --  Ой,  баушка,  ты  что?
        --  Вот  тебе  и  ой.  А  потом  так  и  пошло.  И  второй  ребёночек,  и  третий,  потом  еще  мальчик,  потом  еще  девочка,  и  все  --  чёрненькие.  Мужья-то  у  нее  менялись,  бросали,  думали,  что  тот, значит,  её  черножопый   хахаль  где-то  поблизости  шатается  да  к  ней  по  старой  памяти   тайком  наведывается.  А  никто  и  не   наведывался.  Просто  в  природе  закон  такой,  что  у  любой   самки  детёныши  родятся  подобием  в  её  первого  самца.
        --   Так  то  ведь  у  самки!
       --  Не  перебивай,  говорю,  стрекоза. Люди  заметили,  что  так  и  у   девственницы.  Первый  её  мужчина  оставляет  в  ней  свой  образ    на  всю   жизнь. Все  последующие  будут  давать  ей  только  семя,  а  рожать  она  будет  детей  первого. А  явление  стали  называть  явлением  первого  самца. Сейчас-то  уже  подзабыли,  а  прежде  наши  волхвы  требовали: «Не  допускайте  инородцев  к   дочерям  своим,  ибо  растлят  они  души  их  чистые,  и  кровь   народа  нашего  погубят!»
     --  Ой! 
     --  Вот  тебе  и  ой,  хоть  пой,  хоть  волком  вой.  Но  ладно  бы  кожей  они  были,  эти  детки,  черненькими,  а  если  еще  и  душой?   Учти,  внученька,  как  живут  в  лесу  кровожадные  волки  и  ядовитые  гадюки,  так   живут  и  разные  племена. И  у  каждого  свои  обычаи,  свои  замашки,  свой  характер. У  нас  обязательным  правилом  считается  накормить  да  обогреть   любого  страждущего,  а  у  других  --  ограбить,  изнасиловать,  убить. Это   у  них  в  душе.  И  боги  у  них  такие.  Наши  славянские  для  нас   родные,  ибо  они  наши  прародители,  у  других  --  подавай  им  в  жертву   красных  девиц   да  младенчиков.
     Словно  отмахиваясь  от  такой  напасти,  бабушка  Василиса  даже  ладонью  от  себя  повела:
     --  Чур  нас,  чур  от  иродов!  Спаси  и  помилуй…
           Такие  вот  были  внушения,  назидания,  наставления. И  Светка, слушая  бабушку,  оробела.  То  есть  не  то,  что  оробела,  а   озадаченно  попритихла.  Как  после  этого  такой  строгой  да   премудрой  бабушке  про  свой  непонятный  сон  рассказать?  Что  бабушка  скажет,  если    доверительно  поведать,  кто  ей,  Светке,  во  сне  привиделся?   Нет,  ругать   не  будет.  Разве  что  шуткой-прибауткой  подденет.  Мол,  голодной  куме  и  во  сне  хлеб  на   уме,  но  ты-то,  ты-то…  У  тебя  же  муж  есть… А  этот  поганец…  Не  зря  же  и  зовут  его  так  --  Блуд.
        И  Светке  от  этих  мыслей  стало  не  по  себе.    Много  ей  всяких  разных  снов  снилось,  но  на  этот  раз… Да  и  без  того  бабушка  ее  словно  в  чем-то  нехорошем  подозревает. И  аж   боязнь  в  душу  Светке  прокралась.  И  как  проснулась   после  приснившегося    гадкого   сна,  так  больше  она  потом     до  утра   и  не  уснула.  И  надо  бы  еще  поспать,  и  не  могла   успокоиться,  не  смогла  уснуть. 
      Во  напасть-то  еще, а?  И  смех,  и  грех.  Как  говорится,  клади  в  мех,  да  колом  поверх!
       Ну,  что  ж,  характер  у  нее  такой   --  беспокойный.  Всё  чего-то   душа  не  на  месте. Да  ещё,  признаться,  и  боязливая   она.  Трудно  сказать,  помнилось  ли  ей  что-то  или  передалось  по  наследству  от  мамы,  но,  пожалуй,  именно  с  тех  пор,  с  той  кошмарной  ночи  и  поселился  в  её  душе  неизъяснимый  притаённый  страх.  Так  вот  и  накатывало  иногда  холодной  волной  беспричинной  тревоги. 
         Особенно  по  ночам.  Вроде  бы  и  уснет,  и  спит  крепко,  но  вдруг  почудится  в  темноте  какой-нибудь  подозрительный  шорох,  она  тут  же  и  прохватится.  И  долго,  аж  до  самого  рассвета,  лежит  потом  с  открытыми  глазами,  чутко  вслушиваясь  в  ночную  тишину.  Все  спят  кругом,  а  ей,  ну  вот  ты  хоть  убей  её,  не  до  сна.  И  с  чего  бы,  спрашивается  А  если  ещё  и  рассвет  багровый,  то  и  вообще.  Так  и  кажется,  что  там,  на  востоке,  не  заря  зарумянилась,  а  заполыхало  огромное  зарево.
     Огромное-огромное. В  полнеба…
                ИВАН  ДА  МАРЬЯ
       А  назавтра  с  утра  наступал  праздничный  день,  и  пришлось  рано  вставать.  Хотя  и  не  выспалась,  а  --  надо.  Забот  много.  Как  говорит  бабушка  Василиса,  у  мамы-жонки  хлопот-забот  всегда  полон  рот, а  в  праздник  и  того  больше, успевай  только  поворачиваться.
      Светка  умела  и  любила  работать.  С   детства,  с  самых  малых  лет  ее  так  приучили.  Потому  что  --  надо!
    Да  и  все  в  их  поселке  так,  все  славянороссы.  Всего  у  них  было  вдосталь,  ни  в  чем  они  не  знали  недостатка. Плодородная  земля  щедро  одаривала  их  золотой  пшеницей  и  рожью. Заботливо  возделанные  огороды  --  богатыми  урожаями  овощей. Тучные  стада  домашних  животных  --  молоком  и  маслом.  Приусадебные  сады  --  сочными  яблоками  и  грушами,  вишнями  и  сливами.  А  леса…
      О,  какие  вокруг  стояли  леса!  Густые,  бескрайние,  непроходимые.  Первобытно-девственные.  Местами  такие,  где  еще  не  ступала  нога  человека.  Толстенные  вековые  деревья  и  молодняк-подлесок  с  буйным  понизу  кустарником  так  тесно  сплетались  ветвями,  что  не  то  что  конному  или  пешему  не  пройти  --  ветру   вглубь  не  продраться.  И  сколько  же  там  водилось  дичи!  А  грибов!  А  ягод!  А  ещё  мёд  диких  пчел…  Любила  Светка  лес,  любила  в  лес  ходить…
    А  Чудо-озеро…Это  же  истинное  чудо!  Не  озеро  --  море.  Огромное-огромное,  в  солнечные  дни  голубое-голубое,  как  и  разметнувшееся  над  ним  безоблачное  небо.  И  в  нем  --  кишмя  кишевшие  косяки  рыбы. Иногда  так  и  ловить  не  надо,  подходи  да  руками  бери.
     И  река  негромко  шелестела  у   зеленых  берегов,  и  солнышко  ласково  грело,  и  белые  ромашки  цвели,  и  желтые   кувшинки,  и  белые  лилии,  а  когда  в  небе    семицветной  дугой  вставала  радуга,  о-о-о!.. Это   же…  Это  же…   Вот  где  чудо!  Всем  чудесам  чудо…
     Словом,  живи  да  радуйся.  И  славянороссы  любили  жизнь  и  радовались  жизни.  И  умели  работать,  и  умели  веселиться.  И  праздников  у  них  было  много.  Таких,  когда  они  все  от  мала  до  велика,  всем  миром, пировали.  Состязались  в  беге  наперегонки.  В  единоборстве,  в  богатырской  удали,  в  азартном  кулачном  бою  улица  на  улицу,  когда  мужики,  стенка  на  стенку,  нещадно  тузили  друг  друга  кулаками.   Строго,  впрочем,  соблюдая  правило:  упавшего,  сбитого  с  ног,  лежачего  не  бьют!  А  затем  так  же  гуртом,  всем  миром,  тешили  душу  разухабистой  пляской.                А  вечером  --  песни.  И  тоже  --  всем  миром,  хором,  вознося  благодарение  и   хвалу  матушке-Природе  и  всему  сущему  на  матушке-Земле.
     Да,  много  было  у  славянороссов  всяких  разных,  веселых-развеселых  праздников,  но  одним  из  лучших  считался  Иванов  день.  День  наивысшего  летнего  солнцестояния.  Главный  славянский  бог  Ярило  --  Солнце   поднимается  в  этот  день  на  самую  высокую  точку  в  небе,  в  зенит,  и  в  какой-то  момент  приостанавливается,  не  зная,  куда  же  ему  дальше  идти.  И  тогда  к  нему  является  дева-краса  богиня  Зоря.  Она  с  любовью  умывает  его  чистой-чистой  росой  и  ведет,  катит  солнечное  колесо  к  осеннему  изобилию.
     И   славянороссы  тоже  умывались  в  это  утро  росой,  поскольку  она  была  кристально  чистой  и  полезной  для  здоровья.  Купались  в  росе.   А  потом  купались  еще  в  реке  и  Чудо-озере.  Отчего  праздник  стали  называть  днем  Ивана  Купалы.  А   те,  кого  звали  Иваном,  объявили  его праздником   всех  Иванов  и  днем  своих  именин.
      Ну,  наверно,  потому,  что    Иванов  в  поселке  было  много.  Даже  князь  Иван  Гордый  точно  сказать  не  мог,  сколько. То  ли  семь,  то  ли  семьдесят  семь,  то  ли  и  вообще  семь  раз  по  семьдесят  семь.  Считать-то  тогда  толком  далеко  не  каждый  умел.   Да  еще,  к  тому  же,  Иваны  были  в  чем-то  неуловимо  друг  на  друга  похожи.  И  различали  их  разве  что  по  прозвищам.  Одного  величали  Иваном  Оратаем, поскольку  он  орал,  то  есть  пахал  пашню.  Другого  --  Иваном  Вернидубом,  потому  что  он  валил  в  лесу   дубы  и  строил  из  них  избы.  Третьего  звали  Иваном  Лучником,  ибо  он  лучше  всех  стрелял  из  лука.  Четвертого  --   Иваном  Рыбаком,  потому  как  он  ловил  рыбу. Пятого  --  Иваном  Ратоборцем,  как  самого  мужественного  из  ратников. Шестого  --  Иваном  Лекарем,  седьмого  --  Иваном  Златоустом,  ну  и  так  далее,  всех  и  впрямь  не  перечтешь.
     Был,  например,  Иван  Горемыка.  Был  еще  и  свой  поселковый  Иван  Дурак.  А  как  же,  в  семье  не  без  урода.  Впрочем,  его и  не  Иваном,  а  Ванькой-дурачком  звали.  Но  среди  всех  и  своим  высоким  чином,  и  всей  статью  своей  выделялся,  конечно  же,  князь  Иван  Гордый.
     О,  это  был  мужик!  Мужичище!  А  Гордым  его  прозвали   за  то,  что  и  им  все  гордились,  и  он  всеми  и  всем  очень  гордился. Гордился  поселком,  в  котором  и  рожден  был,  и  вырос.  Гордился  тем,  что  обрел  здесь  почет  и  уважение.  И  что  на  поселковом  вече,  то  есть  на  общем  собрании  был  единодушно  призван  здесь  княжить.  И  гордился  своим  славянорусским  племенем,  которое  его  взрастило  и  воспитало.  Гордился  своей  дородной  матерью,  своим  строгим  отцом.  А  втайне,  да  и  вьяве  --  от  людей  ведь  ничего  не  утаишь!  --  особенно   гордился  он  своей  нежной  да  ласковой  женой,  каковой  была  раскрасавица  Мария  Краса  Русая  Коса.
     О,  это  была  женщина!  Равной,  пожалуй,  не  рождалось  еще  ни  в  родном  поселении,  ни  в  окрестных  селах  и  деревнях,  ни  вообще  на  всем  белом  свете.  Истинно  --  княгиня!  И  далеко  шла  молва,  что  у  нее  и  руки  золотые,  и  ума  палата.  И  еще  шепоток  шел,  что  без  ее  умного-благоразумного  совета  князь  Иван  Гордый  ни  одного  доброго  дела  не  вершил.
       Все  красны  девицы,  все  молодки  и  молодицы,  все  мамы-жонки  в  славянорусском  племени  искони  славились   редкостной  красотой  да  обаянием.  Все  были  наделены  доброй,  кристально  чистой  душой.  И  любая  каждой  частичкой  своего  нежного  тела,  каждой  клеточкой  своего  чуткого  естества  ощущала  единство  с  плодородной  родной  землицей  и  со  всем  сущим  на  ней.  И  с   родниково  прозрачной  тихоструйной  рекой.  И   с  ласковыми  волнами  Чудо-озера.  И  с  бездонно-глубоким родным  небом.  И  с   самим  Ярилой  Солнышком,  ниспосылающим  всем  и  вся  свое  божественное  сияние  и  животворное  тепло.  Но  Мария  Краса…
     Походка,  стройный  стан,  гордо  вскинутая  голова,  которую  словно  бы  оттягивала  тугая,  закинутая  за  плечи  и  золотистым  ручьем  сбегающая  до  пояса  русая  коса,  и  все  движения  этой  женщины  были  преисполнены  прирожденной  грации.  Уже  в  раннем  девичестве,  при  свойственной  подросткам  угловатости,  ее  краса  была  так  всесильно  покоряюща,  что  когда  она  проходила  по  саду  или  повдоль  реки,  все  цветы  восхищенно   склоняли  перед  ней  свои  головки  и  звонкоголосые  птицы  немели  в  ветвях,  любуясь  ею.  И  даже  рыбы  выглядывали  из  воды. И  облака  в  небе  замедляли  ход.  И  само  солнце  приостанавливалось.  И  даже  вросшие  в  землю  гранитные  валуны  силились  привстать  на  цыпочки,  чтобы  получше  рассмотреть  эту  чарующую  славянорусскую  красоту.
      А  она,  гуляя,  тоже  то  и  дело  приостанавливалась,  чтобы  погладить  своей  нежной  рукой  белоствольную  березку  или  поцеловать  приветливо  улыбающийся   ей  цветок.  И,  глядя  на  цветы   восхищеным  девичьим  взглядом,   в  умилении  восклицала:
     --  Ой,  да  они  же  поют!  Нет,  правда,  вы  только  послушайте,  послушайте…
    И  зеленокудрые  березки  весело  приосанивались,  и  цветы  расцветали  еще  ярче,  еще  красивее,  любовью  отвечая  на  ее  любовь.  А  у  нее  для  всего  находилось  ласковое  слово.  Цветы  для  нее  --  деточки,  водица  --  сестрица,  воздух  --  братец,  лес  --  батюшка,  природа  --  матушка.               
     Выросшая  в  простой  славянорусской  семье,  она  и  будучи  княгиней   ни  на  какие  пышные  наряды  не  зарилась, ни  за  какой  модой  не  гналась, носила  платья  из  домотканого  полотна,  но  все,  что  ни  надевала,  все  было  ей  к  лицу,  все  выгодно  подчеркивало  ее  обаятельную  женственность. А  глянет  на   тебя --   будто  солнце  блеснет   в  глаза.  Про  таких  вот  и  говорят  --  ослепительная  красавица!
       Нет,  что  говорить,  в  поселке  все  мамы-жонки  и  красны  девицы  были  все  красивы,  все  настоящие  славянорусские  красавицы.  Но  Мария  Краса  Русая  Коса…
       Мария  Краса  Русая  Коса  была  как-то  необыкновенно  красива,  удивительно  красива,  первобытно  красива,  неотразимо  красива.  Это  была  истинно   ослепительная  красавица,  если  и  не  единственно  самая   красивая,  то  такая,  какие  появляются  на  свет  раз  в  сто  лет.  А  может, и в тысячу  лет.  Казалось,  сам  воздух  вокруг  нее   сиял  каким-то  особым  сиянием. И  самый  густой  загар  не  скрывал  обжигающе-пламенного  румянца  ее  нежных  щек. И  словно  какие-то  магнетические  токи  исходили  от  нее.  И  в  глазах  ее  сияла  любовь  и  бесконечная  нежность.  И  любили  ее   все  как  самую  родную.  А  уж  Иван  Гордый…
       Э,  не  зря  князь  Иван  Гордый   гордился  своей   княгиней.  Гордился  и  любил.  И  не  просто  любил  --  обожал.  Истинно  --  боготворил.  Ибо  истинно  --  богиня!  И  уж  как  пылко,  как  влюблённо,  как  ласково  с  ней   разговаривал.  Бывало,  только  и  слышишь:
     --  Марийка…  Маруся…  Марусенька… Радость  моя…  Любовь  моя…  Славяночка  моя… Судьба  моя…
     А  иногда   еще  и  так  назовет:
     --  Берегинюшка  моя…  Берегиня…
    То  есть  та,  кто  бережет. Кого  зовут  мамой-жонкой.  И  это  не  только  ей,  всем  очень  нравится.  Особенно  женщинам    по  душе.  Ибо  кто  мужиков-то,  кто  мужчин  искони  берег  и бережет,  разве  не  женщины-жены?  И  кто  всегда  берег  и  бережет  детишек-ребятишек  и  родной  очаг,  родное  семейство,  когда  мужики  уходят  в  лес  на  охоту  или  в  озеро  на  рыбалку.  И  кто  не  дает  погаснуть  домашнему  очагу,  кто  охраняет,  бережет  жилище  и  все  нажитое  добро?  И  кто  за  престарелыми  родителями   ухаживает?  И  кто  детишек-малышек  рожает  да  пестует?  А?..
     Случается,  и  мужниным  мечом  да  с  рогатиной  незваных-непрошенных  гостей  встречают.  Дом  берегут.  Всех  берегут.  Весь  родной  народ  берегут.  На  то  они  и  мамы-жонки.  А  если  еще  на  беду  муж-хозяин  на  охоте   или  в   сражении  с  врагами  погибает,  то  и  вообще  все  тяготы  жизни  на  кого   ложатся?
       Нет,  никого  из  обворожительных  славянорусских  красавиц  никак  нельзя  было  назвать  избалованной  белоручкой-неженкой,  нет. А  уж  Марию  Красу  и  подавно.
      Рослая,  выносливая,  крепкая,  Мария  Краса  Русая  Коса   обладала  поистине  богатырской  силой.  Ее  так  и  называли  --  богатырша!  Она  с  одинаковой  сноровкой  владела  как  ножом  для шинковки  капусты,  так  и  тяжеленным  боевым  мечом.  Виртуозно  владела.  И   ратный  доспех,  железную  кольчугу  носила  с  таким  изяществом,  как  носят  изысканно  модное  платье,  которое  надевают  только  по  большим  праздникам.
      Впрочем,  в  такой  праздник,  как  день  Ивана  Купалы,  торжества  начинали  не  только  безо  всяких  нарядов,  а  и  вообще  в  чем  мать  родила.  Голыми,  нагишом  на  восходе  солнца  выходили  ранним  утром  купаться  в  росе.  А  потом  --  в  реке.  А  потом  и  в  Чудо-озере. И  первыми  тут  были,  как   и  во  всем  и  везде,  княгиня  Мария  Краса  Русая  Коса  и  князь  Иван  Гордый.  Про  них  поселковый  летописец  поэт  Иван  Златоуст  по  этому  поводу  даже  песнь  такую   сочинил:
                Иван  да  Марья
                В  росе  купались,
                И  в  реке  купались,
                И  в  Чудо-озере  купались,
                И  где  Иван  купался,
                Берег  колыхался,
                А  где  Марья  купалась,
                Травка  расстилалась.
     Мария  Краса  Русая  Коса   не  только   в  день  Ивана  Купалы,  не  только  обычая  ради  купалась.  Она  любила  купаться,  очень  любила.  А  когда  стала  матерью,  и  ребятишек  своих  к   тому  сызмальства  приучала. К  своим  двадцати  восьми  годкам  десятерых  она  родила,  и  все  мальчишек.  Десятерых  сыновей  Ивану  Гордому   подарила.  Да  каких!  Таких  славных, таких  милых,  таких  крепышей  --  залюбуешься!  А  почему?  А  потому  что  с  малолетства  купанием  закаляла,  к  купанию  приучила.    Да  так,  что  ни  сама,  ни  детки  ее  без  купания  и  дня  не  могли  прожить.  И  поутру,  едва  проснувшись,  сразу  же  бежали  либо  к  реке,  либо  к  Чудо-озеру.  При  любой  погоде. А  в  теплый  солнечный  день  и  несколько  раз  на  дню.  Оттого  и  сама   здоровьем  обладала  отменным, и   сложена  была  благодаря  плаванию  на  загляденье.  И  когда  выходила  из  воды  обнаженной,  не  было  человека,  который   не  замер  бы  в  восхищении  перед   покоряющей  красотой  ее  словно   точеной  фигуры.
     А  вместе  с  восхищением  в  глазах  окружающих  читалось   и  нескрываемое,   особо  почтительное  сострадание.  На  левой  груди  княгини  над  сердцем  --  аккурат  над  сердцем!  --  отчетливо  белел  давно  зарубцевавшийся,  но  и  при  видимой  давности  своей   страшный  шрам.  И   сразу  можно было  догадаться,  что  такой  след   мог  остаться   только  от  удара  боевого  меча.  И   нельзя  было  не  подивиться  тому,  как  она  при  таком  смертельном  ранении  осталась  живой  и  как  живет  доныне.
     О,  тут  целая  история!  Жившие  задолго  до  нашего  летоисчисления  иноземные  путешественники  в  своих  повествованиях  единодушно  хвалят   редкое  радушие,  гостеприимство  и  хлебосольство  славян.  Всякого  пришельца  они  встречали  с  добрым  словом  привета,  как  родного  или  давно  знакомого.  Мол,  гость  в  дом  --  радость  в  дом.  И  угощали  изобильной  трапезой,  делились  всем,  что  имели  сами.  Кротки  и  мирны  были  их  нравы  и  обычаи,  и  далеко  гремела  слава  о  необычайной  красоте,  целомудрии  и  верности  славянорусских  жён  .  Зная  и  ценя  их  девственную  непорочность,  такой  же  ненарушимой  верностью  отличались  и  их  мужья. А  если  куда  отправлялись  в  странствия,  то   брали  с  собой  не  оружие,  а  кифары.  То  есть,  говоря  по - ихнему,  гусли,  игрой  на  которых  очаровывали  и  делали  добрыми  даже  самые  жестокие  сердца.
     А  вместе  с  тем  по  всему  миру  шла  молва   о  том,  что  не  приведи  судьба  кому  их  обидеть  и  разозлить.  Нет,  лучше  и   пальцем  не  трогать,  ибо  при  нападении  на  них  они  дрались  с  такой  яростью,  с  таким  ожесточением,  что  редко  кто  из  врагов  оставался  в  живых.  И  что  поразительно,  рядом  с  мужчинами,  в  одних  рядах,  плечом  к  плечу  шли  в  бой  их  неразлучные  жены. Они были  будто бы даже отважнее  своих мужей в боевых схватках, так как иной раз те и пятится  начнут, а женщины  ни за что не бегут, а идут вперед на самую невозможную опасность.  Если  же  вражье  войско  вдруг  одолевало  численным  превосходством  и  муж  падал  сраженным,  то  жена  предпочитала  позору  и  надругательствам  плена  мгновенную  смерть,  бросаясь  грудью  на  острие  своего  меча.
      К  великому  сожалению  до  нас  не  дошли  их  гордые  имена.  Возможно,  потому,  что  таких  случаев  было  великое  множество  и    подобного  рода  самоотверженная  верность   считалась  обычной.  Мол, а  как  же  иначе!  И  тем   приятнее  узнать,  что  одно  из  таких  имен  все-таки  донесло  до  нас   древнерусское  предание.   Это  была  Мария  Краса  Русая  Коса.  Не  случайно  оно  перешло  потом  в  русские  народные  сказки.  Хотя  тот  героический  эпизод  почему-то  и  в  сказках  обойден  молчанием.
      Наверно,  кому-то  же  надо,  кому-то  выгодно  стереть  такое  из  народной  памяти.  Но  что  было,  то  было.   Не  случайно  же  в  древних  славянорусских  могильниках  при  раскопках  часто  находят  останки  мужчины,  лежащего  вместе  с  женщиной. А  когда  в  ту  треклятую  ночь  ее  возлюбленный  пал  в  неравном  бою  с  норманнами-варягами, Мария  Краса  Русая  Коса   и  бросилась  нежной  девичьей  грудью  на  острие  своего  меча.  Только  судьбе  было  угодно,  чтобы  смерть  миновала  ее.  Меч  на  какую-то  крохотку  не  дошел  до  сердца,  и  она  осталась   жива.
     Чудо?  Пожалуй.  Или  матушкой-Природой  данная  прирожденная  живучесть. О  которой  искони  словно  диву  дивятся,  что, мол,  женщины  живучи,  как  кошки.  Но  вернее  --  спасла  ее  любовь. Когда  подобрали  и  понесли  к  могиле,  чтобы  предать  земле,  она  вдруг  шелохнулась  и  горько-горько,  с  тяжким  стоном  позвала:
      --  Ива-а-ан…  Ва-а- ня…
      Все  так  и  ахнули:  жива! 
      А  при  общем  молчании  и  еще  неожиданность. В  ответ вдруг из  груды  мертвых  тел  прозвучало:
     --  Мария… Марийка…  Марусенька…
     Тут  уж  и  вовсе  у  всех  дыхание  перехватило. Оказывается,  весь  изрубленный  мечами  и  исколотый  вражьими  копьями,  Иван  Гордый  тоже  был  жив.  Или,  может,  ее  зов,  ее  любовь  его  оживили.  Ведь  не позови  они  вот  так  друг  дружку   --  закопали  бы,  засыпали  сырой  землей  могилку,    и   --  всё.  Не  зря  же  он  потом  всю  жизнь  называл  её  Берегиней.  Она,  она  тогда  своей  любовью  спасла.  Сберегла  его.  А  потом  и  еще  крепче  любила,  и  еще  вернее  берегла.  Берегиня…
      Или,  как  она сама  о  том  пыталась  объяснить,  жалела.  А  он  --  жалел  ее.  А  жалость  --  это  та  же  любовь.  А  может,  и  сильнее  любви.  Ведь  не   умереть,  не  убиту   в  бою и  не ранену  быть  страшно,  а  страшно,  если  потом  и  пожалеть  тебя,  и  восплакаться,  восскорбеть,  и  сохранить  добрую  память  о тебе  некому. 
    А  еще  с  годами  материнство  пробудило  у  Марии  Красы  Русой  Косы  лучшие  женские  качества. Внешне,  всем  своим  обликом  и  ухватками  она  оставалась  все  той  же  озорной  и  задорной  красной  девицей,  а  статью  и  умом   преобразилась  в  блистательно  величавую  и  мудрую  княгиню,  которая  радела  не  только  о  своей  семье,  но  и  о  всем  своем  роде-племени.  Одаренная,  как  сегодня  сказали  бы,  генетической,  наследственной  материнской  мудростью,  она  во  всех  делах  и  помыслах  заботилась  о  сбережении  и  приумножении  родного  народа.  О  сбережении-сохранении    родной,  унаследованной  от  отцов  и  праотцев,   славянорусской  матушки-земли.
     Так  же,  как  и  ее  благоверный  князь  Иван  Гордый.  За  что  родная  матушка-земля  по-своему  их  и  отблагодарила.  Там,  где  во  время  ожесточенной  битвы  с  врагами  пролилась  их  кровь,  по  весне  проклюнулся  и  вырос  прелестный  полевой  цветок.  Один  лепесток  у  него  оказался  золотистым,  а  второй  --  синим.  И  кто-то  догадался,  и  с  доброй  улыбкой  сказал:
     --  Глядите-ка,  Иван-да-Марья!..
     Так  вот  родная  матушка-земля  благодарно  и  благородно  увековечила  то,  что  утратила  с   годами  долетописная  человеческая  память.  А  теперь,  когда  в  день  Ивана  Купалы  ребятишки  плели  венки,  то  обязательно  вплетали  в  них  цветки  Ивана-да-Марьи. А   день  Ивана  Купалы   был  праздником  славян.  А  славяне  были  язычниками. А  Иван  Купало  был  у  них  богом  земных  плодов  и  красоты.  Так  что  напрасно   записные  брехуны  врут,  будто  бы  имена  Иван  да  Марья   чуть  ли  не  какие-то  там заморские-забугорные  христианские.  Нет,  наши,  славянорусские,  языческие,  родные.
     А  когда  у  Ивана  Гордого  и  Марии  Красы  Русой  Косы  родился  русоголовый  первенец,  князь  любовно  называл  княгиню Марусей. Потому  что  имя  Ма-руся  означает  мама  руса.  Мама  русича,  мама  русского  человека,  мама  русских  детей.
     Так  потом  в  подтверждение  тому  Маруся  Краса  Русая  Коса   подарила  Ивану  Гордому  и  второго  русича  --  русоголового  сынишку.  А  потом  и  еще одного,  и  еще.  Десятерых!  Десятерых  русичей. Гордеевых. И  пошёл  от   этой  гордой  фамилии  род  Гордеевых.  Род  гордых,  мужественных  и  красивых  людей.
     А  детей,  ребятишек  не  только  в  их  княжеских  хоромах  --  у  всех,  в  каждой  избушке, в  каждом  тереме,  вообще  в  поселке  --  что  чаек  на  морском  берегу.  Вышли,  прибежали  спозаранку  на  Чудо-озеро  купаться  --  эхма,  вода  от  такой  толпы в  берегах  не  умещается.   Тут  и  не  поймешь,  где  чей,  где  свои,  где  чужие.  Да  и  какие  чужие  --  все  свои, все  русы, все  русые,  русокудрые,  славянорусские.  И  сколько  же,  сколько  их  --  и  не  счесть.  Орава!  На – род.
    А  как  же  иначе!  Так  праотец  Род  и  праматерь  Рожаница  завещали.  А  они,  праотец  Род  и  праматерь  Рожаница,  они  же   родоначальники   всего  славянорусского  рода.  От  них  пошла  и  Матушка  При-рода,  и  по-род-а,  и род-ители,  и  род-ные,  и  на-род,  и  Род-ина.  И  род-ник,  и  плодо-род-ие,  и  у-рож-ай.      Чтобы  что  ни  год,  то  приплод.  И  чтобы  не  было   у-род-ов,  род-ительнца   обязана  прежде  всего  здоровой  быть. И  чтобы  все  лучшее  и  все  в  первую  очередь  --  детям. 
     Заветы  эти  славянороссами, русичами, россами  святее  всех  святостей  соблюдались.  Издревле  после  добычливой охоты  или  удачной  рыбной  ловли  первых  кормили  детей  и  мам-молочниц  с  младенчиками-грудничками,  затем  женщин  и  стариков,  и  лишь  после  этого  начинали  трапезу  мужчины  и  все    остальное  племя.  Поэтому  в  захоронениях  тех  времен  весьма  и  весьма  редко  находят  останки  детей.  Детской   смертности   почти  не  было,  дети  росли  крепенькими,  здоровыми,  не  зная,  не  ведая  никакакой  хвори.
     Экология,  как  говорят  сегодня.  Чистый  воздух,  чистая  вода,  экологически  чистые  продукты. И  еще  потому,  что  славянороссы  оказывали  особый  почет  и  уважение  своим  женщинам.  А  как  же!  Ведь  каждая  женщина  --  чья-то  мать,  а  кто  же  не  любит,  кто  не  почитает  свою  маму?  Как  в  твои  самые  ранние  детские  годы  она  тебе  --  мама,  так  и  в  зрелом  возрасте,  и  до  конца  жизни  --  мама.  А  твоя  сверстница тебе  жена.  Так  что  каждая  женщина  --  это,  как  тогда  говорили,  мама-жонка.  Твоя  хозяйка,  твоя  подруга,  твоя  любовь  и  хранительница  семейного  очага.
       Величайшим  злодеянием  считалось,  неслыханной  мерзостью  и  гнусностью  считалось  обидеть  девочку,  девушку,  женщину.  За   одно  лишь  непристойное,  срамное  слово  в  женском  обществе  могли  изгнать  из  родного  поселка.  Существовал  неписаный  закон,  неписаный  благородный  кодекс  чести. Свято  чтили  культ  обожествленных Рожаниц. Разрешившихся  от  бремени  тоже  истинно  обожали. Им  приносили  к  постели    молоко, мёд,  медовые  прохладительные  напитки, булки,  крендели  и  все-все,   любые  яства, чего  только  душенька  пожелает.  А  как  же --  мама!
      --  Ма-а-ма!.. Мамочка!..  Маманя!..  Маманька!.. Мамочка!  --  звенело,  неслось  со  всех  сторон  и  в  тот  праздничный  день  на  берегу  Чудо-озера.  Купаясь,  резвясь,  забавляясь,  брызгаясь  друг  с  дружкой   озерной  водой,  то  тот,  то  другой  ребятенок  оглядывался,  искал  глазами,  звал  маму.  Видит  ли,  любуется  ли,  похвалит  или  остережет,  одернет,  если  что  не  так.  И  в  ответ  тоже  со  всех  сторон  ласковое,  нежное,  заботливое:
       --  Я  здесь,  здесь,  доченька…  Здесь,  здесь  я,  сыночек…
      И  еще  на  разные  голоса:
     --  Деточки  мои… Птенчики  мои…   Соловушки…
    Вон  маманя  Аня  Няня  со  своими  игру  затеяла.  А  их,  белобрысеньких,  у  нее  и  не  сочтешь,  истинно  гусиный  пушистый  выводок,  и  она,  стоя  поодаль,  весело  кличет:
     --  Гуси,  гуси,  га-га-га!  Есть  хотите?
     И  в  ответ  --  хором:
     -- Да!  Да!  Да!
    --  Так  летите  все   сюда!
    А  они,  заливаясь  счастливым  смехом,  как ровесницу,  еще  и   ласково,   в  шутку    по  имени  поддразнивают: 
      --  А  ты  где,  Анюта? 
       А  она  такая  молодая-молодая,  такая  юная,  ну  истинно  девочка,  их    старшая  сестренка.  И  она  тоже  хохочет,  подыгрывает:
     --  Тута,  тута!  Анюта  тута!
     И  веселая,  шумливая  стая  ее  белобрысеньких  ребяток,  словно   крылья  раскинув  ручонки,  стремглав,  наперегонки  мчится-летит  к  ней,  чтобы   с   шумом-гамом,  писком-визгом  обхватить,  обнять  мамины  колени,  прижаться,  ощутить,  что  они  с  ней  одно  неразрывное  целое. И  у   нее  тоже  счастливо  сияют  по-детски  радостные  материнские  глаза.  И  кого  по  непокорным  вихрам  погладит,  кого  в  горяченькую  щечку  чмокнет,  кого  за  плечики  приобнимет,  в  объятия  привлечет:
     --  Роднулечки  мои…  Слатулечки  мои…  Кровиночки…  Ягодиночки…
     А  рядом  с  ней  такую  же  возню  затеяли  с  ребятишками   уже  и  Людмила,  что  всем  людям  Мила,  и  Люба,  что  всем  Люба,  и  Наташа  Радость  Наша,  и  Дуня  Певунья,  и  ее  тезка  Дуня  Плясунья,  и  Матрёна  Едрёна,  и  все-все.  А  шумливее,  затейливее  всех, пожалуй,  Луша  Клуша.  Она  ведь  потому  и  клуша,  что  у  нее,  кажется,  больше  всех  малышни.  И  она,  счастливая  многодетная  мама,  среди  своих  малышек-ребятишек  истинно  как  заботливая,  возбужденно  квохчущая  наседка  со  своим  выводком.  И  они  у  нее  ну  истинно  цыплятки  так  и  вьются  около  нее  неуемной  гурьбой:
     -- Ма-а-а-ма…  Мамочка…  Мамусенька...
     Даже  муженёк  её  Стёпка  Растрёпка  тоже  словно  ребятёнок  возле  неё,  и  тоже  мамой  зовёт.  И  не  сказать  о  нём,  чтобы  там  какой  неумеха  или  растеряха,  нет,  деловой  вроде  мужик,  а  при  ней… Ну,  право,  так  и  кажется,  что  она  ему  и  в  самом  деле  тоже  мама,  а  он  ну,  ей-ей,  мальчишка.  И  не  гляди,  что  с  виду  петушок-петушком,  и  росточком  не  вышел,  а  хорохорится  орёл-орлом.  Потому,  наверно,  что  и  к  нему  она  сумела  по-матерински  умно  подойти.  Не  зря  же  исстари  говорят,  что   при  смышленой  да расторопной  жене  даже  самый  захудалый  мужичонко  может  в  короли  выбиться.
     Одно  только  некстати  смущало  празднично  гомонящий  люд:   нельзя  было  не  заметить,  что   среди  веселых,  радостно  возбужденных  мама-жонок  было  немало  и  таких,  на  чьих  лицах  и  в  чьих  глазах  сквозила  тень  притаённой  печали.  И  были  это  те,  кого  судьба  обделила, слишком  рано,  еще  в  молодые  годы,  лишила  счастья  быть  чьей-то  женой,  и  потому  не  имевших  детей.
     Ох, не  зря  же  на  Руси  исстари   говорят,  что   лучше  сто  раз  помереть,  чем  один  раз  овдоветь.  Вдова  --  бедовая  голова.  Не  бедовая,  а  бедная,  горемычная.  Останешься  вдовой,  так  хоть  волком  вой,   в  беде  ох  как намыкаешься.  И  хозяйство  одной  без  мужа  вести,  а  если  у  тебя  еще  и  куча  мал-мала  меньших   осталось  без  отца  ребятишек?  А  если   ты ,  на  беду, и  не  успела  их   при  живом  родителе  заиметь,  то  и  вообще  о  нормальной  жизни  говорить  не  приходится.  Два    полена  и  в  поле  дружно  горят,  а  из  одного  костра  не  сложишь,  одна  головня  и  в  печи   только  горьким   дымом  дымит,  да  еще,  не  разгорясь,  и  погаснет.
    Нет,  ничего  такого  вслух  никто  не  высказывал, деликатно, чутко  и  уважительно не  касаясь  интимно  личных  чувств,  однако  для  многих,  слишком  уж  для  многих  одиноких женщин  и  праздник  был  словно  бы  не  совсем  праздник,  и  в  глазах  читалась  зависть  к  мужним  женам.  И  особливо  --  к  счастливо  многодетным   матерям. Ходит  такая  шутка-прибаутка,  что  у  вдовы   пироги  особенно  вкусные,  а  для  кого  их печь?  Ох,   все  бы  любая  вдова  отдала,  только  было  бы,  для  кого.     И  Мария  Краса  Русая  Коса  не  могла  не  сочувствовать  им,  не  понимать  их, и  не  шепнуть  о  том  князю  Ивану.  На  свой  лад,  по-своему,  так  сказать,  издалека  разговор  завела:
      --  Послушай-ка,  друг  мой  любезный,  князь  Иван,   а  зачем  живут  зайцы?
      --   Хм,  как  зачем?  --  усмехнулся  он.  --  Н-ну,  чтобы  это…Чтобы  жить.  Чтобы  зайчаток  разводить.  Или   не  слышала,  как  Райка  Балалайка  поет?  Изображая   кистями  своих  могучих  рук   треньканье  на  балалайке, князь  Иван  игриво  пропел:
                А  чего  они  хотят, --
                Растить  маленьких   дитят. 
     --  Та-ак… А  овцы?
     --  Ну,  и  овцы…  Это  самое…
    --  Да?..  Ну,  а  бараны?
   --  Ты  чего  это  вдруг?  К  чему  клонишь?  На  что  намекаешь?
    --  А…  А  -  волки?  Отчего  они  рычат,  ради  маленьких  волчат?
    --  Ну,  давай  без  этого.  Говори  прямо,  берегинюшка  моя, о  чем  ты?
    --  Эх,  князь,  князь!   Кочергу  железную  узлом   завязать  можешь… С  рогатиной  на  медведя  в  одиночку  не  раз  хаживал…Не  одну  разбойную  варяжскую  башку  мечом  с  плеч  снес,  а   вот  княжеские  думы  до  конца  частенько  додумывать  не  желаешь.
     --  Да  ладно  тебе.
    --  Ладно,  да  не  совсем.  И  у  зайчишек-трусишек  есть  зайчихи  и  зайчатки.  И  у  овец  --  бараны  да  ярочки. И  никому  они  ни  по  трусости,  ни  по  дурости  зла  не  желают,  никому  не  вредят,  никого  не  трогают.  А  вот  волки…
      --   С  чего  это  ты  вдруг?
     --   А  с  того  самого.  Меня  не  понимаешь,  бабушку  Василису  Премудрую  послушай.  Она  тебе  лучше  объяснит, что  змею  соловьём  петь  не  научишь…
     Задала,  словом,  загадку.  То  есть  и  не  загадку,  а  --  задачу.  Ибо  что  ж  тут   думать-гадать,  кто  зайцы-трусы,  кто  туполобые  бараны,  и  кто  --  волки.  Вон  они  --  волки,  вечно  злобно-алчные  ворюги-варяги.  А   лопоухие  зайцы  да  туполобые  бараны…
    Это  что  же,  прирожденно  и  на  всю  жизнь,  и  на  все  поколения  рода?  Как  в  лесу  живут  кровожадные  волки   да  ядовитые  гадюки,  так  и  племена?
    М-мда!  Не  хотелось  додумывать  до  конца,  и  отмахнуться  нельзя.  А   еще  некоторые  умники  говорят,  что  у  бабы  волос  долог,  а  ум  короток.   Нет,  не  зря  у  нас  про  жену  говорят  --   моя  половина.
    И  озадаченно  склонил  голову  князь  Иван  Гордый.
    И  задумался-призадумался.
    Глубоко  призадумался.  Глубоко.
    Ибо  мечтать  легко,  а  думать трудно.               
                ИВАНОВ ДЕНЬ
   А  праздник  шумел-гомонил,  шумел-гудел,  набирал  силу.
   Шумел-гомонил,  шумел-гудел,  набирал  силу  праздничный  день  славянорусского  Ивана  Купалы.
    Погода  выдалась,  как  по  заказу,  тоже  праздничная.  Солнечное  колесо  Ярилы  поднималось  все  выше   и  выше,  катилось  в  зенит,  и  славянороссы  после  купания,  после  омовения  в  росе,  в  речной  и  озерной  воде  возносили  ему  свои  благодарения.  Разбившись  на  пары  и  небольшие  группки,  они  молитвенно  пели:
                Гори,  гори  ясно,
                Чтобы  не  погасло.
                Гори-гори,  не  сгорай,
                Чтобы  зрел  наш  урожай…
        В  другой  группе  славили  Матушку  Природу  дружным,  стройным  хором.  И  звонко  лилась,  далеко  и  высоко  разносилась  песня:
                Слава  Матушка  Природа
                От  всего  нашего  рода,      
                От  славянского  народа, 
                С  травушкой-муравушкой,
                Со  сладкой  малиной,
                С  красною  калиной,
                С  черною  смородиной,
                С  молодильными  яблоками,
                С  цветами  лазоревыми,
                Слава!  Слава!  Слава!               
     Тех,  кто  проспал   либо  по  какой-то  иной  причине  припоздал  по  росе  прибежать  на  берег  Чудо-озера,  обливали,  окатывали   холодной  водой.  Шум,  смех,  брызги,  девичьи  притворные  взвизги,  шутки-прибаутки,  веселая,  неуемная,  озорная  кутерьма.  Каждый,  каждый,  не  важно,  взрослый,  старый  или  малый,  --  все  должны  в  день  Ивана  Купалы  искупаться,  омыться  холодной  водой.  Ибо  это   не  только  тело  делает  чистым  и  здоровым,  но  ободряет,  очищает  и  душу.  А  как  же,  в  здоровом  теле  здоровый  и  дух.
        Вон  и  Юля  Чистюля    своим  ребятишкам  об  этом  толкует,  внушает,  к  купанию  приучает,  уму-разуму  наставляет.  Чтобы  здоровеньким  расти,  чтобы  не  болеть,  надо,  говорит,  чистеньким  да  закаленными  быть.  Особенно, говорит,  девочкам.  Вам  же,  когда  вырастете,  и  самим  детей  рожать,  и  самим  их  ростить-воспитывать.  А  разве  детки  здоровенькими   -умненькими-благоразумненькими   смогут  стать,  если  у  них  мамуля-грязнуля?
       И  Люба  Голуба,  что  всем  Люба,  и  семейство  свое,  и  всех-всех  вразумляет.  И  не  только  маманька,  но и  папанька  должен  чистоту  соблюдать. У  человека  все  должно  быть  чистым  --  и  тело,  и  душа,  и  мечты,  и  мысли.  Потому  что  от  доброго  дерева  и  плоды  добрые.  А  разве  может  быть  что-то  чистое,  светлое,  доброе  от  нечистоплотного,  замурзанного  неряхи?  У  него  и  самого  не  лицо,  а   ряха,  и  у  деток  малолеток  от  грязной  кожицы  не  личики,  а   как  у  лешего  рожицы.
       И  везде,   где  сошлись -собрались,  столпились  люди,     во  славу  чистоты  и  здоровья,  в  благодарение  воде  звучит   славословие  всей  Матушки  Природы.  И  все  дружнее,  все  веселее,  громче  и  звонче.  И  другие  туда  подходят,  подхватывают,  присоединяются,  вливают  и  свой  голос   в  общее  молитвенное  многоголосие:
                Катится  Ярило  в  небе,  ярится,
                Слава!
                Матушка  Природа  радуется,
                Слава!
                Перун  Громовержец  покой  сторожит,
                Слава!
                Батюшка  князь-государь  рядом  стоит,
                Слава!..   
        Слушая,  князь  Иван  Гордый  не   мог   не  улыбнуться.  Это  ведь  и  про  него.  Это  и  в  его  адрес  доброе  слово.  Это  он,  значит,  батюшка  князь-государь.  Громковато,  но…
     Невелик,  сравнительно  невелик  поселок,  не  велик  и  удел,  куда  его  призвали  княжить,  но   чего  в  нем  недостает,  чего  не  хватает?  Все,  кажется,  есть,   всего  вдоволь.  Вон  какие  расписные  хоромы,  вон  какие   изукрашенные  терема,  вон  какие  добротные  избы  --  из    толстых  сосновых   бревен  рубленые.   Да  и  сами  бревна  эти  особенные  --  сердцевины  вековых  сосен.  Смолистые,  золотистые  от  пропитавшей   и    предохраняющей их от  гниения ароматной   смолы .  Словом, на  века  стоять  сложенные.  И  это  ведь  при  нем,  при  его  рачении  возведены  после  того  уже,  как  были  дотла  сожжены  ворогами-варягами.  Как  не  гордиться,  как  не  радоваться! 
     И  такие  же  гумна  для  собранного  урожая,  и амбары  для  хранения  зерна,  и  клети,   и  повети  для  сена,  запасенного  на  всю   долгую  зиму   на  корм  домашней  животинке.  А  в   сараях  и  сараюшках  в  тепле  да  уюте   и    лошадки,  и  буренушки,  и  недоверчиво  посматривающие  большими  миндалевидными  глазами  жеребятки  да  телятки,  и  овцы,  и  козы.  И   так  приятно  тянет  с  сеновала  духмяным  настоем  сухих  трав,  смешанным  с  запахами  навоза,  конского  и  коровьего  пота.
       И  в  каждом  дворе  обязательно  вальяжная  свиноматка  с  добрым  семейством  жадно  тыкающихся  в  ее  крутые  бока  розовыми  пятачками  и  настырно  повизгивающих  поросяток.  И  ее  довольное,   успокаивающее  похрюкивание.  Ну  вот  прямо-таки  нельзя  не  улыбнуться,  глядя  на  этот  деловито  копошащийся  выводок.
       А  здесь  же,  на  задах,  за  сараем,  так  же  обязательно  роскошный,  изумрудно-зеленый  огород.  И  длинные,  заботливо  возделанные  ряды  аккуратных  грядок.  И  чего  только  на  них  не  растёт.
       А  поля,  а  поля,  где    волнами  перекатывается  под  легким  ветерком  высокая  рожь  да  пшеница!  А  васильки,  синие-синие  васильки,  и  все  так  приветливо,  так  учтиво  отвешивают  тебе  поклоны.  Какой-то  хитрец-мудрец  врет,  что  имя  Василий  от  византийского  базилевс-базилий,  а  оно  --  вот  же  оно,  исконно  старинное,  древнее,   наше. 
        А  луга?  На  окрестных  лугах  такое  сочное  разнотравье  --  хоть  сам  ешь!  Густющее,   высоченное,  шелковистое.  И   весело,  в  охотку  пасется  здесь  разномастная  домашняя  скотинка.  Крутые,  лоснящиеся  бока  нагуливает.  Поглядишь  --    рука  сама  собой  погладить  тянется.  А  окрест  оглянешься   --  и  глаз,  и  душа  радуется  при  виде  желто-синих  ковров  ивана-да-марьи,  желто-белой  ромашки   и  розовых  облаков  иван-чая.
      А  река?  Тихая,  спокойная,  тихоструйная.  И  вода-водица  в  ней  вон  какая  --   аж   до  самого  дна  прозрачная,  на  глубине  каждый  камешек  отчетливо  виден.  Да  еще  и  целебная  вода,  врачующая,  исцеляющая.  Недаром  же  про  нее  так  и  говорят  --  живая  вода.
      А  гусей-лебедей,  а  гусят-лебедят,  а  уточек-крякушек  сколько!  Летом   зеленые  берега  ну  вот  прямо-таки  все  белым-белы,  словно  снежком,  гусиным  да  лебяжьим  пухом  все  окрест  усыпано.
      Ну,  а   кур  да  курят  во  дворах  и  подворьях  --  так  тех  и  вообще  никто  никогда  не  считал  и  не  считает.  Тьма-тьмущая!  Яички   корзинами  собирают.  И  себе,  и  хрюшкам-свинушкам  в  корыта  доверху  насыпают.  Ешьте  только,  ешьте,  кушайте,  миленькие.  А  то  вы,  не  покорми  вас,  как  следует,  так  и  зазевавшуюся  курицу   живьем  с  потрохами  сожрёте.
     А  вместо  воды   и  животным  потом  запивать  молока  наливают. Коров  во  дворах  много,  ну  и  молока   --  хоть  залейся.  Сколько  душе  угодно  молока.  И  парного,  и  сырого,  и  кипяченого,  и  топленого.  Всем  и  на  любой  вкус,  в  том  числе  и  хрюшкам-свинушкам  с  ихними  малыми дитятками-поросятками. Хлебайте, лакайте,  пейте,  на  доброе  здоровье.  Вам  ведь  тоже  вкусненького  хочется.  Лакомьтесь. 
    При   такой  домовитости,  при  таком  достатке  поселок  утопал  в  садах. Садов  было  много,  каждая  изба  была  окружена  садом,  и  все  они  сливались  в  один   сплошной  и  огромный,  подобный  райскому. И  в  каждом    обязательно  пчелиная  пасека,  где  стояли  ульи,  выдолбленные  из  столетних  лип.  И  не  было  ни  одной  семьи,  которая  не  занималась  бы  пчеловодством.  И  это  при  том,  что  и  в  лесу  была  тьма-тьмущая  диких  пчёл,  и   мужики  увлекались  бортничеством. Ну,  то  есть,  сбором  дикого  мёда.
      А  повдоль  по  улицам  благоухающая  черемуха,    кусты  жасмина, сирени,  акации, клумбы  цветов.  А  в  густой  листве  тополей,  тенистых  кленов,  вязов  и  белоствольных  берез  неисчислимое  множество  разноголосого  пернатого  населения.  Неумолчный  и  нескончаемый  птичий  щебет   спозаранку  и  допоздна  заглушает  все  уличные  шумы, ласкает  слух.
     А  лес?  И  на  север  --  лес,  и  на   юг  --  лес,  и  на  восток,  и  на  запад,  на  все  четыре  стороны  света  без  конца  и  без  края  тянется.  Может,  на  сто  верст,  а  может   и  вообще  без  скончания.  Да  еще  местами  такие,  что  через   могучую  крону  не  пробиваются   солнечные  лучи  и  безраздельно  властвует   первобытная  тишина..  Зато  и  лесных  даров,  даров  Матушки  Природы…   У-у!   И  дичи,  и  ягод,  и  грибов.  Тут  уж  и  стар,  и  мал   постоянно  как  у  себя  дома.
      О,  а  озеро?  Не  озеро  --  море.  Чудо-озеро!  Круглый  год   рыбкой  одаривает.  Да  какие  дает  уловы!  Рыбу  солили,  вялили,  коптили,  сушили,  возами  развозили  по    поселку  и   по  всем  окрестным  деревням  и  селам.
     А   окрест  во  всем  уделе  тоже  богато  жили,  зажиточно.  Не  то,  что  в   хваленой,  славящейся  благодатным  климатом  стране  франков.  Побывав  там,  князь  Иван  Гордый  был  страшно  возмущен  роскошью  королевского  двора   по  сравнению  с  ужасающей  нищетой  тамошних  деревень. После  чего,  не  сдержавшись,  в  сердцах   злую  глупость  сморозил.  Дескать,  если  я  замечу  подобное  за  нашим  поселком,  то  лучше  сам  зажгу  его  со всех  четырех сторон.  Не  надо  было  так  говорить,  не  надо.  Сам  же,  дурень,  накаркал,  беду  накликал. 
     Ну  что  ж,  в  жизни  всяко  бывает.  Конь   на  четырех,  и  то  спотыкается.  Не  ошибается  только  тот,  кто  ничего  не  делает.  А  вообще  не  зря  же,  не  зря  наши   прадеды  да  пращуры,  уходя  от   недружелюбных  соседних  племен,  этот  край,  эти  места  для  проживания  выбрали.  Только  вот…
     Ну,  да  разве  ж  они  могли  предполагать,  что  и  здесь,  в  этой,  казалось,  невозможной  глуши  под  боком,  по соседству  тоже  злые  недруги  объявятся.  А  вот  --  объявились,  леший  бы  их  побрал!  И  там   эти   германны-копьеносцы  тойчены-дойчены  себя  некой  особой,  нордической,    высшей  расой  считали,  и  здесь  эти  норманны-береги-карманы  тоже,  видите  ли,  той  же  породы.  А  глаза-то  что  у  тех,  что  у  этих, завидущие,  а  руки  загребущие.  По-род-а…  У-род-ы,  точнее  сказать.
     Да  и  как  же  подло,  внезапно,  сволочи,  войной  нагрянули!  Вон  наш  славянорусский  князь  Святослав  Хоробрый,  когда  собирался  идти  на  кого-то  с  войском,  так  он  сперва  гонца  посылал  с  оповещением:»Иду  на  Вы!»  А  эти…
      И  ведь  чуть  не  погиб   тогда Иван  Гордый,  чудом,  можно  сказать,  уцелел.  И  Мария  Краса  непонятно  как  выжила.  Он-то,  можно  сказать,  благодаря  силушке  своей  богатырской  да  матушкой-Природой  данному  здоровью  своему  мужскому,  а  она?  Это  же  подумать  только,  и в  ее   нежное  девичье   тело  вонзалось  холодное    вражеское  железо.  Вспоминая,  Иван  Гордый  аж  головой  мотнул.  Аж  зубами  заскрипел.  Жаркая  жалость  в  сердце   кипела.  Неутолимая   ненависть  жгла.
        Никого  и  ничего  не  страшился,  ни  перед  кем  и  ни  перед  чем  никогда  не  отступал  Иван  Гордый.  Стрелы,  меч  и  копье  князя-ратоборца  Ивана  Гордого  разили  врага  так  же   метко  и  неотразимо,  как  и  молнии  Громовержца  Перуна.  В  минуты  гнева  голос  его   гремел-громыхал  так,  будто  он  железной  кувалдой  дробил  гранитные  валуны.  Да,  в  одиночку  не  раз  хаживал  с  рогатиной  и  на  медведя,  и  на  дикого  вепря.  И  все  гордились  как  первым,  лучшим   в  поселке  охотником.  А  еще  сильнее  гордились  тем,  что  он  так  же  неустрашим  был  и  в ратных  поединках,  в противоборстве с супостатами, посягавшими на родную землю. Но в тот раз… 
        Ведь  они  как,  бандюги,  напали?  Воровски,  в  самый  глухой  час  ночи,  под  прикрытием  темноты  прокрались.  Когда  все  спали.  Да  еще  как-то  так,  что  и  сторожевые  псы  зарычали-залаяли  слишком  поздно.  Каким-то  образом   и  их  коварные  норманны  обмануть  смогли.  И  когда  захваченные  врасплох  поселковые  мужики  начали  выскакивать  из  своих  жилищ,  их   уже  у  двери  поджидал  бандитский  удар  невидимо  притаившегося  во  тьме  врага.
      Многие  тогда  полегли,  ох,  многие.  Но  сражались  яростно,  ожесточенно.  Наверняка  еще  и  отбились  бы,  если  бы  не  очередная  норманнская  подлость.  Видя,  что  им  не  одолеть,  эти  негодяи  подожгли  поселок.  А  в  избах,  в  каждой  избе  немощные  старики  да  старухи.  А  главное  --  дети,  дети.
       Да,  тут  уж  не  до  боя.  Кинулись  мужики   назад,  в  свои  горящие  избы,  так  ведь  не  из  трусости,  не  свои  жизни  --  детей  спасать.  Дети  же,  дети!  У  кого  грудничок,  у  кого  двое-трое  или  мама-жонка  на  сносях,  а  у  иного  куча  мал-мала  меньших  несмышлёнышей.  А   потом…
     А  потом  надо  было  укрывать  семейство  от  непогоды.  Спешно  шалаши-халабуды  ставить,  землянки  сооружать.  А  еще  и   какую-никакую  снедь  добывать.  Все  ведь  сожгли,  все  разграбили,  все  уволокли   разбойники.   Все,  до  крохотки.  Так  что  и  кормёжку,  и  одёжку  тоже  заново  добывай…
      И    тяжело  вздохнул,  и  поник  головой  князь  Иван  Гордый.  Не  только  о  прошлом,  и  о  настоящем,  и  о будущем  думать  надо.  Вот  он  и  думал.  А  что  делать?  Как  жить  с  такими  соседями?  Правильную  ему  загадку  загадала  Мария  Краса  Русая  Коса.  Разве  когда  найдут  общий  язык,  разве  установят  мир  и  согласие  между  собой  лопоухие  зайцы,  туполобые  бараны  да  кровожадные  волки?  А?
       А  эти   же  и  хуже,  и   злее.   Волки,  хоть  когда  сытые,  на  других  зверей  не  нападают,  а  эти…  Их   разве  чем  задобришь?  Возомнив  себя  особой,  высшей  расой,  они  чужую  доброту  слабостью  считают.  Их  только  силой  и   образумишь.  Что  же,  самим  на  них  войной  двинуть?  Так  это  не  в  правилах  мирных  и  дружелюбных  славянороссов.
       Да  и  не  с  кем,  по  правде  сказать,  в  ратный  поход  идти.  Почитай,   каждый  второй  мужик  в  ту  треклятую  ночь  смертью  храбрых  в  сражении  пал.  Поглядишь,  едва  ли  не  каждой  избе  --  одни  вдовы.  Не   призовешь  же,  не  поведешь   баб  на  войну,  пусть  и  справедливую.  Не  женское,  не  бабье  это  дело.  Ох,  Мария,  Мария,  не  все  же  такие,  как  ты.
       И  только  вспомнил  он  о  ней,  а  она  и  вот  она,  к  нему  спешит-торопится,  ласковой  белозубой  улыбкой  сияет:
     --  Что  Иванушка   не  весел,  что  головушку  повесил?  Люди  веселятся,  празднуют,  а  ты?  Праздник  же,  праздник!  Чегой-то  ты  тут  в  сторонке  пригорюнился?  Негоже  особняком  от  людей  держаться.  Видишь,  костер  уже   разжигают?  Пойдем-ка  и  мы  к  ним.
     И  повлекла  его  туда,   где  уже  во  всю  ивановскую  разыгрывался   день  всех  Иванов.    А  там…
     А  там  торжественно  возносилась  к   небесам  хоровая  молитва:
     --  О  Ярило  Солнце,  Бог   Отец  наш!  Освещай  и  грей  наши  поля  и  реки,  наши  леса  и  озера,  наши  души  и  наши  сердца.  Ведь  мы  твои  дети.  Так  же,  как  жизни  детей  сосунков  соединены  воедино  с  жизнями   их  матерей,  так  и  все  мы  кровью  нашей  и  пуповиной  нашей,  и  дыханием  нашим,  и  жизнью  нашей  соединены  с  Ярилой  Солнцем,  Духом   Предков  и  с   жизнью  Матери  Земли.  Слава  вам,  слава,  слава.  Слава  и  ныне,  и  присно,  и  во  веки  веков!
      И    во  всю  ивановскую  шумел-гудел,  бурно  полыхал  огромный  костер,  символизирующий  солнечный  круг  Ярилы.  И  все  мужчины,  и  все  мамы-жонки,  и  все  добры  молодцы,  и  все  красны  девицы,  разбегаясь-разгоняясь,  с  разбега,  с  разгона,  а  кто   и  так,  прямо  оттуда,  где  стоял,  сигали-прыгали  через  буйно  клокочущее,  высоко  вздымающееся  пламя.  После  омовения  в  росе,   в  реке   и  в  озерной  купели  теперь  очищали  тело  и  душу  огнём.
     И  был  в  этом  и  еще  один  загад.  Чем  выше  вздымалось  пламя   и  чем  выше  были  прыжки,  тем   выше  должны  были  расти  в  полях  хлеба.  И  тем   здоровее,  высокими  и  статными  должны  были  расти  в  семьях  дети.  Вон  как  у  княгини Марии  Красы  Русой  Косы  и  князя  Ивана  Гордого  --  один  к  одному  богатыри.  Их  и  зовут  так,  у  них  уже  и  фамилия  --  Гордеевы.  И  они  тоже,  хотя  и  малолетние  еще,  азартно  сигали  через  костер,  не  боясь  обжечься  в  бурно  гудящем  пламени.
       А  те,  кто  уже  женихаться  начал,  прыгали  резвее  всех.  Первыми   --  красны  девицы.  Добры  молодцы  --  следом.  И  --  бегом.  Изо  всей  прыти.  Изо  всей  мочи.  Девица  --  убегать.  Парень   --  догонять.  И  уж  когда  догонит,  непременно  поцеловать.  И  если   девушка  не  хотела,  не  желала  дозволить  такого,  то  ее,  быстроногую,  и  не  догнать  было.  А  если  кто  ей  нравился,  то  она  еще  и  нарочно   делала  вид,  что  ей  не убежать,  замедляла  шаги, и  тогда…
    И  тогда  парень  непременно  настигал  ее  и  непременно  целовал.  И  тогда  она   становилась  его  невестой.  А  вскорости  были  смотрины,  и  если  родители  давали  на  то  свое  благословение,  играли  свадьбу   и  объявляли  молодоженов  супругами.  А  супруги  --  это  по-старославянски  со-упруги,  то  есть  два  вола  в  одной  упряжке.  И  как  два  вола,  так  и  муж  да   жена,  ставшие  супругами-со-упругами,  обязаны  на  равных  всю  жизнь  везти-тянуть  семейный  воз.  А  их купание-омовение  в  росе  и  в  холодной  озерной  и  речной  купели,  после  чего  непременно  следовал   совместный  прыжок  через  костер  в  Иванов  день,  означали, что  они  ради  друг  друга  и  ради  своих  детей  готовы  и  в  огонь  и  в  воду.
       После  чего  и  во  имя  чего  вокруг  жарко  пылающего  костра   затевался   хоровод.  Костер  означал  Ярилу  --  Солнце,  солнечный  круг,  и  хоровод  вокруг  костра   --  тоже  круг,  общая,  взявшись  за  руки,  совместная  пляска.  Хоровод  --  солнцеворот.
     Восторженно  ахнул,  и  заухал,  и  зачастил, и  рассыпал  плясовую  дробь  звонкоголосый  бубен.  И  радостно  грянули,  вторя  ему,  озорные  литавры.  И   запел,  заголосил,  взахлеб  убыстряя  ритм,  весь  рожковый  оркестр,  И  словно  безудержным  вихрем  подхваченная,  грациозной  легкокрылой  голубкой   выпорхнула  впереди  всех  Мария  Краса  Русая  Коса.  И  пошла,  и  пошла,  и  понеслась,  полетела  вкруговую,  кокетливо  взмахивая  сдернутой  с  плеч  кружевной  косынкой.
     Молодцевато  вскинув  голову,  следом залихватски ринулся  выписывать  ногами  кренделя  Иван  Гордый.
     --  И-эх!  --  задорно  выкликнул  он,  и  его  призывный возглас  далеко  разнесся  окрест.  Ха,  он  такой.  Окладистая  русая  бородка  в  сочетании  с  воинской  суровостью  лучше  всяких  слов  свидетельствовали  о  том,  что  этот  человек  и  добр,  и  одновременно  неукротим  в  исполнении  своих  желаний.  Богатырь,  исполин,  он  словно  могучая   башня  высился  над  самыми  высокими  ратниками  в  княжей  дружине  и  был  всегда  преисполнен  чувством  необоримой  силы,  казался  хладнокровным  до  каменной  невозмутимости.  --   И-и-эх!  --  повторил  еще  призывнее.  И.  озорно  блестя  смеющимися  глазами,  повелительно  повел  рукой:  --  Ходи,  ребята,  ходи!
     Любо-дорого  было  глядеть  на   эту   величественно  красивую  супружескую  пару.  Мария  Краса  Русая  Коса  и    была   женщиной  на  редкость  привлекательной,  а  в  танце  и  вообще  представала  неотразимой,  пышущей  здоровьем  и  силой.  И  хотя  на  ее  плечах  были  не  только  семейные,  но  и  общественные  поселковые  хлопоты,  была  она  на  диво  молода  и  обаятельна.  Гибкая,  стройная,  с  высокой  грудью   и  крутыми  упругими  бедрами,  она  так  и  светилась  вся  неуемной  радостью,  так  и  сияла  лучезарной,  обворожительной  улыбкой.
       Глядя  на  нее,  с  веселым  взвизгом   гурьбой  выбежали  на  круг   Мила  Заводила,  Ала  Запевала, Всеслава  Забава,  Райка  Балалайка,  Ксюшка   Резвушка, Ира  Проныра  и  Мира   Задира,  о  характере  которых  красноречиво  говорили  уже  сами  их  прозвища.  В  тот  же  момент  лебедушками  выплыли  Валюшенька  Душенька,  Ива  Дива,  Алинка  Малинка,  Алена  Гулена  и  кокетливая  Аринка  Смешинка.  И  даже   такие  с  виду   незаметные  скромницы,  как  Лизка  Лиска,  Настя  Для  Семьи  Счастье,  Нинка  Картинка  и  Вера  Мегера.  Кое-кто,  правда,  особенно  из  числа  робеющих  вдовушек,  замялся  было  в  нерешительности,  но  их  всех  схватили  за  руки,  втянули  в  искрометный  праздничный  хоровод.
       А  уж  мужики-то,  а  мужики!  О-о!  С  неуемной  резвостью  мчался   вокруг   костра  Иван  Гордый.  Овевая  его  могучую  фигуру,  как  буря,  шумел  разорванный  в  клочья  воздух,   и  земля  вздрагивала  и  гудела  под  его  ногами.   Словно  большая  и   сильная,  гордая  птица,  как  крылья,  раскинув  руки,  он  призывно  восклицал:
       --  И-эх!  Ходи,  ребята,  ходи!
     И  еще  веселую  шутку-прибаутку  выдал:
     --  Ходи,  хата,  ходи,  печь,  хозяину  негде  лечь.  А  как  под   бубен  попляшу,  так  три  дня  хлеба  не  прошу.  И-эх!
      Выказывая  свою  молодецкую  удаль,  вслед  за  ним  неслись  все  Иваны.  А  как  же!  А  как  же!  Это  же  их  день,  леший  вас  побери,  их  праздник  --  день  Ивана  Купалы.   Иванов  день.  День  всех  Иванов.  Но  и  другие  не  замешкались,  не  отстали.  Плясали   Сенька  Ухарь  и   Орел  Серпокрыл, Микула  Селянин  и  Федор  Вернигора,  Светозар  Жар  и  Неждан  Скороход,  Федот  Да  Не  Тот   и   Тихон  Хлопотун,  Филя  Простофиля   и   Алеша  Доброхот,  Коля  Голубок  и  даже  такой  неуклюжий  с  виду  увалень  как  вечный  соня-засоня  Леня  Трутень.
     Все  шли  в  хороводе.  Все  плясали-танцевали,  все.  Образовалась  такая  вихревая  круговерть,   завертелся  такой   огневой  круговорот,  что  уже  и  не  различить  было,  кто  за  кем  несется  и  какие  фортели  вытворяет.  Ибо  пылало,  горело,  буйствовало,  клокотало   в   душах  этих  плясунов-танцоров  наследственное  природное  озорство,  помноженное  на  неукротимую  славянорусскую  удаль.
     И-эх,  какая  это  была  стихия!
     Это несла, крутила  вихри  все  сметающая  на  своем  пути   грозовая  буря.
    Это  бушевал  ураган.
    Буйное,  удалое,  могучее-живучее  племя  славяноруссов.  Они  любили   жизнь  и  умели  жить.  Они  умели  работать  и  умели  праздновать.
     Хорошо.  Славно.  Лепота!
    И  только  один,  только  один  человек  не  принимал  участия  в  этом  искрометном   танце-хороводе,  в  этом  буйстве   радости  и  веселья.  Как  стоял,  так  словно  и  пристыл  к  месту  в  каком-то  лишь  ему  понятном  угрюмом  одиночестве.  А  потом  и  вовсе  как-то  незаметно  куда-то  исчез. 
           А   был  это  Ёська  Блуд… Ах,  этот  Ёська…
                БЛУД
           Светка  Недотрога  не  раз  замечала,  что  и  всегда  он  вот  так   --  всё  как-то   в  сторонке,  всё  в  сторонке. Все люди как люди, а этот…  Даже  в  такой  вот  праздник  --  день  Ивана  Купалы  будто бы всех  сторонится. Она в общем-то  обычно  и  не  придавала  этому  особого  значения,  а  тут…
      Сама  она,  как  и  все  мамы-жонки  и  красны  девицы,  тоже  любила  петь  и  плясать.  И  любила  смотреть,  как   пляшут  другие.  В  особенности  любопытно  было  наблюдать  за  своим  Мишуней.  Громоздкий,   косолапый,  истинно  --  Топтыгин,  в  пляске  Миша  казался  воздушно  невесомым.  Вот  и  сегодня,  выкамаривая  что-то  несусветное,  он  носился  наперегонки  с  князем  Иваном  Гордым,  явно  напоказ  оспаривая  право  быть  первым.  И  до  того  дерзко,  до  того  залихватски,  с демонстративным  вызовом,  что  и  у  всех  добрых  молодцев  азартным  блеском  загорались  глаза,  сами  собой  начинали  подергиваться  руки  и  ноги,  и  через  какой-то  момент  вслед  за  ними  головокружительным  смерчем  устремлялись  даже те,  кого,  казалось,  и  с  места  не  сдвинуть  из-за  их  каменной  невозмутимости.
      Один  только  Ёська  Блуд  словно  ничего  не  замечал.  Словно  в  упор  ничего  не  видел.  А  ведь  стоял,  смотрел,  наблюдал, точно  кого-то    или    что-то  высматривал.
     А  потом  куда-то   ушмыгнул,  словно  его  тут и  не  было.
     Этому  никто в  общем-то  и  не  придал  никакого  значения.  Ну,  исчез,  и  исчез.  Ушел  куда-то,  убрел,  ну  и  ладно. Привыкли  к  такому  его  поведению.  То,  глядишь, ходит-бродит  по  улицам,  слоняется  без  дела,  будто  что   высматривая   и  вынюхивая  своим  вечно  сопливым  крючковатым  носом,  то  вдруг  как  сквозь  землю  провалится,  пропадет.  И  долго  иной  раз  его  не  видно,  и  никто  и  не  интересуется,  где  он.  Ну  нет  его,  и  шут  с  ним.  Так  и  на  этот  раз.  Но  тут  Светку  как  бы  что-то  дернуло,  что-то  обеспокоило.  С  чего  бы,  почему?
     Как-то  так  получилось,  что  она  частенько  искоса  взглядывала  в  его  сторону,  когда  он  как-то  подозрительно  топтался  возле  праздничной  толпы.  А  потом  на  какой-то  момент  отвлеклась.  Припевкой  ее  отвлекли.  Райка  Балалайка  со  своей   неразлучной  трынчалкой  появилась  и  пошла  трынчать  да  озорные  припевки  выкрикивать.  И  всего-то  три  струны,  а  будь  здоров  наяривает:
                Ой,  Иван,  Иван,  Иван,
                Посади  меня  в  карман,
                А  с  кармана  в   закуток,
                Щупай  девок  за  пупок!
        Ну,  как   же,  раз  сегодня  Иванов  день,  то  и  она  про  Ивана.   Ей  за  словом  в  карман  не  лезть.  Слов  у  нее  по  любому   поводу  в  преизбытке.  Хочешь  --  про  Ивана,  хочешь  --  про  Демьяна.  Вот  и  ее,  Светку  с  Мишей  подковырнула:
                Светка  с  Мишей  целовались,
                Обнимались  горячо.
                Та  ему  сломала  руку,
                Тот  ей  вывихнул  плечо…
              Придумает  тоже,  лишь  бы  что  посмешнее,  чепуху  всякую.  Ну,  вообще-то  Миша  при  его  медвежьей  силище  может,  конечно,  неосторожно  обнимая,  кому  угодно  руку  сломать,  но  Светка…
       Заслушалась,  фыркнула,  хмыкнула,  а  Ёська  Блуд  в  этот  момент  куда-то  и  ушмыгнул.  А  ей  все   ее  сегодняшний  паршивый  сон  покоя  не  дает,  вот  она  на  него  и  взглядывала.  И  еще  про  его  паршивое  прозвище  думала.  Блуд  --  это  же  блуд.  Блудник  во  всех  смыслах.  Давно  уже,  очень  давно  поселился  у  них  в  поселке,   а  вот откуда     приблудился, кто его  знает. Да,  в  общем-то,  никто  особо  и  не  интересовался. Был бы, мол, человеком хорошим, а  всё  остальное  приложится. 
     Ну,  самого-то  его  послушать,  так  он,  конечно   же,  хороший-расхороший.  Только  вот  судьба  у  него…Уж  он  такой  горемыка,  такой  горемыка…  Ну,  жизнь  у  него  так  сложилась,  что  он  с  детства-малолетства  блудить  обречен.  Были,  рассказывал,  и  у  него  папа  и  мама,  был  дом,  были  старшие  братья  и  сестры,  а  потом…
       Блуд  тяжело  вздыхал,  шмыгал  носом,  тер  грязной  пятерней  глаза,  будто  утирал невольные   слезы:   потом,  мол, война.  Он  тогда, право,  по  чистой  случайности  уцелел,  чудом  в  живых  остался.  Да  еще  один-одинёшенек. Ну и побрёл-пошёл-поковылял незнамо куда.  Ну  и  заплутал,  заблудился, да вот к ним, в  их поселок и приковылял.
      --  А  вы  --  блудник!   --  с  укоризной  плачущим  голосом  гнусавил.  --  Врагу  бы  я  не  пожелал  таким  блудником  быть.  Ладно,  ваши    жалостливые  да  сердобольные  ама-зонки  помереть  не  дали…
        С  того,  мол,   он  так  и  льнет  к  ним,   ама-зонкам.  А  вы  --  Блуд  да  Блуд. Да, пусть  Блуд, так  ведь  оттого, что приблудный-приблудившийся,  а  не  потаскун  какой-нибудь.  А  они,  чтобы  поддеть  да  уязвить,  эти    насмешники  еще  и  Ёськой  зовут.  Он  же  --  Иосиф,  так  его  папа-ама  звали,  а  тут…  Даже  малышня  сопливая  дразнит.  Идешь  по  улице  --  только  и  слышишь:»Ёська-Моська,  Ёська-Моська  Блуд!»  А  то  еще  и  блудливым  котом  обзовут.
       Умел  он,  рассказывая  о  себе,  пустить  слезу,  разжалобить,  чтобы   его,  разнесчастного,  пожалели.  И  никому,  мол,  не  понять,  каково  ему,  горемыке,  горько  свое  горе  горькое  сиротинушкой  мыкать.
      Сочувствуя,  ему  даже  избушку  выделили,  поскольку  он  еще  и  жену  себе  откуда-то  похожую  на  себя  привёл.  Или,  может,  и  не  жену,  потому  что   жил  с  ней  как-то  не  по-людски.  Ни  детей  у  них  не  было,  ни  хозяйства  они  никакого  не  вели,  как  распоследние  лодыри.  А  между   тем  в  посёлке  поговаривали,  что   у  нее  под  подушкой  целый  дамский  чзагашник  золотыми  червонцами  набитый  хранится.
      --  Так  откуда  же  ты  все-таки?  --  сочувственно  спрашивали.  --  Из  какого-такого  царства-государства?  Скажи,  может, кого  из родственников или соплеменников подсобим  найти.
       --  Ой,  да  я  не  помню…  Ой,  да  я  не  знаю…  Помню  только,  что  очень  уж  долго  шёл-ковылял-шкандыбал.  Иду,  было,  пока  ноженьки  держат,  а  как  резвые  притомятся,  так  и  упаду…
     --  Да  как  же  это  ты  так  шёл-ковылял-шкандыбал,  что  именно  к  нам  и  заявился?
      --  Ой,  да  я  не помню…Ой,  да  я  не  знаю…
     --  А  из  какого  же  ты  рода-племени?   Как  папу-маму  звали?
     --  Ой,  да  я  не  помню…
     Так  вот  толком  ничего  и  не  поведал  о  себе.  А  может,  и  вправду  ничего  не  знал  да  не  помнил.  Потому  его,  сиротинушку  бедненького,  и  приютили.  Живи,  мол,  коль  уж  так.  Нам,  славянороссам, и  не  важно,  какого  ты  роду-племени,  лишь  бы  человеком  хорошим  был. Так извечно у добрых людей заведено.
     Только  вот  человеком-то  быть  он  и  не  умел.  Вечно  ему  все не  так,  да  не  эдак.  И  все  хитрил-ловчил  да  прибеднялся.   Да  еще  ехидненько  подкусывал   тех,  кто  пытался   в  чем-то  его  хотя  бы  мало-мальски  приструнить.
      --  Делом,  Ёська,  заниматься   надо,  работать,  а  не  языком  чесать,  --  говорил,  бывало,  кто-нибудь,  а  у  него  тут  же  ухмылочка: 
      --  Успеется.  На  мою  лень  будет  и   завтра  день. Работа  не  волк,  в  лес  не  убежит.
      -- Ну  ты  и  хмырь!  Труд  человека  кормит,  а  лень  портит.  Без  труда  не  вытащишь  и  рыбки  из  пруда.
      --  Так-то  оно  так,  да  я-то  не  рыбак. 
     --  Да,  --  возмущались  мужики,  --  горазд  ты  баклуши  бить.  И  не  надоело?  Да-а,  языком  трепать  --  не  топором  махать.
     --  Хм,  дураков  работа  любит.
     --  А  ты,  значит, умный?  А  мы,  значит,  дураки?
     --  Ну,  каждый  себя  умным  считает.  Обзови  дураком  --  обидится.
     --  А   Сару,  значит,  дурой  звать  можно?
    --  Х-хе!  Курица  не  птица,  баба  не  человек.  У  бабы  волос  длинен,  да  ум  короток. Не  хочешь   оказаться   в  дураках,  выслушай  женщину  и  поступи  наоборот…
     --  А  к  чужим  чего  ж  вяжешься?
    --  Это  не  я  к  ним.  Это  они  ко  мне…
    --  Н-ну?  Во  как!   Потому  что  дуры,  да? Силён,  хлюст!  Силён…
    Из-за  этого  его   по  имени и  не  звали,  все  Блуд  да  Блуд. А  еще  в  насмешку  сердцеедом  обзывали. Ясно  же,  блуд  --    это тот,  кто  блудит.  Дразнили,  словом,  подначивали. Словно  и  не  было  у  него  имени.  И  вообще,  когда  заходила  о  нем речь,  все  лишь  с  досадой  морщились:
     --  А-а,  этот…  чухна…
    То  есть  вроде  бы  он  чухонец.  Но  чухонцы  --  те  чаще  всего  рыжие,  конопатые,  да  и  работящие,  а  Ёська  черный  и  ленивый.  По  вороватым  глазам, по всем повадкам  --  цыган. Так  и  среди  цыган  хорошие  кузнецы  бывают,  а  Блуд…
    Да  еще  и  картавый.  И  до  того  противно  --  иной  раз  как  ворон  каркает.  Иногда,  сволочь,  подстережет  Светку,  чтобы  один  на  один  с  ней  оказаться,  и  шасть  навстречу:
     --  Кр-р-расавушка!  Здр-р-растуй!
     И  ещё  губы  растянет  в  слюнявой  улыбке.  Словно  ощерится. Смотреть  тошно.
     Светка  знала,  что  на  нее  заглядываются  мужчины,  но  другие  смотрели  тепло,  приветливо  и  с   искренним  восхищением,  а  этот…
     Тьфу!
      Неприятно  выделялся  он  среди  других  и  своим  неряшливым  обликом.  Долговязый,  тощий,  с  замурзанным,  костлявым  лицом,  и  глаза   немигающие  --  как  у  гадюки.  Подбородок  --  торчком,  остро выпирающий  вперед,  на  впалых  щеках  щетина,  как  у  свиньи,  а  под  хлюпающим  носом  вечно   в  соплях  обвисшие  усы.  Этакое-то  чудище,  а  туда  же   --   с  угодливой  улыбочкой,  с  комплиментами.  Истинно  --  смех  и грех, посмешище для  всех. Райка  Балалайка   про  него  даже  частушку  такую  сложила:
                Ох,  Блуд,  ну  и  плут,
                Гадко  с  плутом  знаться,
                Харя  в   сале,  нос  в   соплях,
                Лезет  целоваться.
      И  хотя  ей  никогда  ни  одного  плохого  слова  Блуд  и  не  выказывал,  Светка  относилась  к  нему  с  крайней  отчужденностью  и  неприязнью.  Женским  чутьем  своим  чуяла,  что  человек  он   плохой.  И  не  просто  плохой,  а  хитрый  и  даже  коварный.  И  что  он  никогда  никого  не  любил  и  не  любит. Не  любил  избы,  в  которой  ему  дозволили  поселиться.  Не  любил  улиц,  по  которым  ходил.  Не  любил  женщины  с  каким-то  непривычным  и  противным  именем  Сара,  которую  привел  себе  в  дом  хозяйкой.  Не  любил  их  поселка,  не  любил  деревьев  и  птиц,  не  любил  здешнюю  природу.  А  более  всего  не  любил  людей, считая  себя  и  умнее   всех,  и  хитрее  всех,  и  вообще  лучше  всех.
      Натура  у  него  такая.  Подлая.  Бабушка  Василиса  называет  злых  чужаков  людьми  с  черной  душой.  Душа  у  Ёськи  Блуда  была  определенно  черной.  Светка  знала  это  наверняка.  Чувствовала  по  излучаемым,  исходящим  от  него  пронизывающе  враждебным токам. Потому  и избегала с ним даже нечаянных  встреч.  Не  хотела  его  и  видеть.
      Да  и  все  его  недолюбливали.  Одна  только  добрячка  Ната  Ненагляда  за  него  вступалась:
       --  Ну  что  вы,  в  самом-то  деле.  Только  и  слышишь  --  Блуд,  Блуд…Может,  он  потому  и  такой.  А  вы  к  нему  по-хорошему,  так  и  он,  глядишь,  подобреет.
        --   Угу,  --  усмехалась  бабушка  Василиса.  --  Жди,  голубушка,  жди.  Когда  солнце  с  запада  взойдет.  Или  когда  рак  на  горе  свистнет.  Потому  как  горе  горькое  по  свету  шлялося  и  на  нас  невзначай  набрело.  А  черного  кобеля  не  отмоешь  добела. А  горбатого  только  могила  исправит. А  кто   гадюкой  уродился,  тот  гадюкой  и  помрёт. 
       И  Светка  не  то,  чтобы   знала, но  догадывалась,   почему   этот  чужак  такой.  Потому  что  в  их  поселке  все  вольнолюбивы,  трудолюбивы  и  прямодушны.  Все  любили  работать  и  умели работать, а  он  работать  не  любил  и  не  хотел.  Вот  и  шлялся   целыми  днями  взад-вперед,  ходил-бродил  то  туда,  то  сюда,  словно  сам  не  зная,  зачем  и  куда.  А  меж  тем   что-то  вынюхивая  своим  крючковатым  носом  и  что-то  высматривая  по-змеиному  немигающими  глазками.
       Так  вот  и  получалось,  что  как  появился  в  их  поселке  чужаком-инородцем,  так  таким  и  жил.  И  ведь  рядом  со  всеми  жил,  а  в  то  же   время  как-то  отчужденно,  как  бы  отстраненно,  сам  по  себе. Иногда  как-то  ни  для  кого  не  заметно  куда-то  исчезал.  То  на  день-два,  а  то  и  на  несколько  дней  пропадет.  Никому  и  никогда  не  сказав,  куда  и  зачем  отправился. Никому,  даже  сожительнице  своей,  и  та,  случалось,  неделями  жила  впроголодь.  Хозяйства-то  у  них  не  было,  и  припасов  никаких.  Ну,  ладно,  пусть  бы  на  охоту  пошел,  так  нет  же,  возвращался  он  без  всякой  добычи,  да  еще  и   сам  голодный  и  злой,  как   волк.
       На  их  счастье  народ  в  поселке  жил  добрый,  щедрый,  так  помереть-то  им  не  давали,  подкармливали. Кто  буханку  хлеба  сунет,  кто  свининки  или  говядины,  кто  рыбки.  А  после  удачной  охоты  еще  и  лосятины-           медвежатины  перепадало.  А  как  же!  Надо  же   с  соседями  поделиться.
     Иногда,  правда,  кто-либо  нет-нет,  да  что-нибудь  нелестное  и  буркнет.  Не  калеки,  мол,   и  не  старики  немощные.  И  ух  как  тогда  мрачнела   костлявая  ёськина  рожа!  И  зрачки  вдруг  вспыхивали   ну  прямо-таки  звериной  злобой.  Как  у  волка,  жгучи,  и  остры,  как  жало  осы.
      А  вместе  с  тем  и  притвора  был  --  у-у,  слизняк-слизняком.  Только  что,  глядишь,  вскипел,  и  тут  же  уже  притаил  злость,  и  как  ни  в  чем  ни  бывало  рассыпается  в  подхалимаже.  Ну,  право,  как  старый  вонючий  лис.  Это,  мол,  для  него  такое  счастье,  такое  счастье,  жить  среди  таких  замечательных  людей!  Да  в  таком  замечательном  поселении!  Это  же такой  поселок,  такой  поселок!  Это  райский  уголок,  а  не  поселок.  И  вода  в  реке  тут  живая. Такая, что целебней всех лекарств мира.  И  сам  воздух   целебный.  Такой  воздух,  такой  воздух,  что  просто  ух,  век  дыши  --  не  надышишься. И  сама тишина  здесь   --  это  же  врачующая  музыка. И  кто  пожил  здесь  хотя  бы  пару  дней,  тот  уже  никогда  никуда  отсюда  не  уйдет  и  нигде  больше  жить  не  согласится.
      Светка,  слыша  такое,  лишь  оторопело  таращила  глаза.  Только  что   называл  глухим  медвежьим  углом  и  гиблой  глухоманью,  краем  диких  лесов  и  болот,  гиблой  дырой,  и  тут  же  --  райский  уголок.  Ну,  Блуд!  Да-а-а…  Не  зря,  мол,  сказано,  что  лесть,  даже  самая  примитивная,  всегда  находит  лазейку  даже  к  самым  неподкупным  сердцам.  Пожалуй,  один  только  князь  Иван  Гордый  одёргивал:
      --  Ох,  и  плут  же  ты,  Иосиф!  Блудослов! На языке  --  мёд,  а  на  сердце   --  лёд.  И  потом  скажи-ка  мне,  чего  это  ты  то  возле  хлебных  амбаров,  то  возле  кузни  отираешься?  Чего  ты там  вынюхиваешь?  Шпионишь?
      Ёська  еще  больше  съеживался,  сгибался  в  подобострастном  поклоне.  И  еще  льстивее  звучал  его  гнусавый  голосок:
      --  Как  можно,  князюшка,  как  можно…  Да  рази  я… Да  разрази  меня  Перун  Громовержец  стрелой  своей  огненной!   Да  разверзнись  подо  мной  хляби  морские!  Да  провались  подо  мной  сыра  земля,  если  я …  Да  разве  ж  можно  вредить такому  рыцарю,  такому  храброму  витязю?  Да  я  же  червяк,  я  козявка  в  сравнении  с  ним…
     Тут  он  сгибался  в  таком  низком  поклоне,  что его  вечно  немытые  и  вечно  нечесаные  лохмы  касались  носков  княжеских  сапог.  Посмотришь  со  стороны  --  и  впрямь  козявка  перед  высящимся  над  ним  холмом.  Шелохнись  этот  холм,  сделай  неосторожный  шаг,  наступи,  и   останется  от  этого   слизня  одно  только   мокрое  место.
     --  Смотри  у  меня,  хазарин!   Ох,  смотри!  --  ворчливо  громыхал-рокотал  опоясанный  мечом  холм.  Земля  вздрагивала  от  его  властного  голоса, а  Ёське  хоть  бы  что.  Все  самые   грозные  княжьи  слова  отскакивали  от  него,  как  горох  от  стенки.  Хитрым,  ох,  хитрым  и  изворотливым  был  этот  слизняк.  Человеку  его  роста  рукоять  богатырского   княжеского   меча  доходила  до  плеч  --  Иван  Гордый  был  истинным  славянорусским  великаном,  и  уже  одно  это   вызывало  у  людей  почтение  и  трепет  перед  ним.  Но  при  своей  страшной  громадности  он  обладал   добрейшей,  истинно  славянорусской  душой.  И  Ёська  Блуд  знал  это.  Каким-то  звериным,  что  ли,  чутьем  чуял  и  умело  этим  пользовался.
      Прикидываясь  хилым, болезненно  жалким  и  немощным,  один  только  раз  дрогнул,  не  выдержал  до  конца  взятой  на  себя скоморошьей  роли.  Это  когда  князь  вдруг  заговорил  с  ним  на  его  родном  языке.
     Да-а,  уж  чего-чего,  а  этого  он  ну  никак  не  ожидал.  Все  знали,  что  князь  понимает  и  по-чухонски,  и  по-фински,  и  по-немецки,  и  по-свейски.  И  вообще  из  каких  бы  дальних   чужих  краев  не  появлялся   гость,  купец, путешественник  или  посланник,  Иван  Гордый  в  переговорах  обходился  без  толмача.  Но  то,  что  он  умеет  говорить  еще  и  на  неком хазарском  языке,  было  и  для  Светки  Недотроги  и  вообще  для  всех  полной  неожиданностью.  А  уж  Ёська  Блуд  --  тот  и  вовсе  оторопел.  Заикаться   начал:
     --   Ч-чи-во? Я… Н-ну…  Эт-то …  М-м-ы…  В-в-ы…
      С  него  разом  словно  ветром  сдуло  его  притворство,  и  он,  отдышавшись  от   изумления, заговорил  вдруг  нормальным  человеческим  голосом,  Только  вот  о  чем,  Светка  не  поняла.  А  князь,  выслушав,  озадаченно  протянул:
      --  Н-да-а…  Ишь  ты!  Выходит,  правду  люди  говорят,  что  с  тобой  ухо  востро  держать  надо.  Сколько  волка  ни  корми,  он  все  равно  в  лес  смотрит. Одного  себя  ты  только  любишь,  одного  себя,  одного  себя.  Как, впрочем, и  всё  ваше  поганое  племя,  избранным  себя  возомнив. Ну,  смотри у  меня,  иудей! Ну  смотри…
      Незнакомая  чужая  речь  и  внезапный  испуг   Ёськи  Блуда  удивили,  донельзя  разожгли  женское  Светкино  любопытство,  и  она  не  утерпела,  поинтересовалась:
    --   Хозяин?..  Х-хе,  ну  какой  же  из  него  хозяин!  Вот  что  Блуд,  это  да.  А  хозяин…
     --  Хазарин,  говорю,  а  не  хозяин,  --  сердито  поправил  князь.  --  Слушать  надо  ухом,  а  не  брюхом.
     Светка  виновато  зарделась.  Знала,  Иван  Гордый  не  терпел  лишних  разговоров,  уважая  в  человеке  прямоту  характера,  деловитость  и  ум.  И  все  же   не  сумела  превозмочь  женское  любопытство,  опять  вякнула:
     --  Ой,  мамочки,  хазарин…  А  что  это  такое?
    --  Ну,  племя  такое,--  еще  суровее  почему-то  насупился  князь.--  Вроде  цыган.  Только  не  цыгане,  а  жиды.  Они  себя  лучшим,  самым   лучшим  во  всем  мире,  избранным  народом-племенем  считают.  Вот  и  Ёська  так.  --  И  совсем  уж  сердито  князь   заключил:  --  Он  еще  подсуропит  нам  подарочек,  этот  мозгляк…
                КОГДА ЦВЕТЁТ ПАПОРОТНИК
       Все  это  разом  и  вспомнилось  Светке  Недотроге,  когда  она  заметила,  что  Ёська  Блуд с праздника  улизнул. У неё  вот  так  и  ёкнуло  в  душе.
      Праздник  вообще-то  вскорости  закончился,  нахлынули  другие  заботы.  Князь  Иван  Гордый  распорядился  всем  мужикам  отправляться  в  озеро    на  ночной  лов  рыбы,  благо  погода  благоприятствовала.  Да  и  понимать  же  надо:  делу  --  время,  а  потехе  --  час.  И  не  до  того, чтобы   долго предаваться  праздничному  безделью. Повеселились, отдохнули, и  хватит.  В последний свой заход по сбору дани норманны-береги-карманы всё  до  последней  крохи  выгребли.  А   семьи-то  кормить  надо…
      Так  что вместе  со  взрослыми  мужиками  пошли   в  ночь  на  рыбную  ловлю  и   подростки.  И  хотелось  бы  еще  погулять,  побездельничать,  а  куда  денешься?..
     Бабам  тоже  не  до  того,  чтобы  пустопорожние  тары-бары  разводить.  В  день  Ивана  Купалы  самая-самая  пора  собирать  лечебные  травы.  В  этот  день  они  самые-самые   спелые,  самые-самые  действенные.  Приворот-трава,  одолень-трава,  сон-трава, разрыв-трава,  трын-трава… И  вообще   хорошо  бы  погулять,  побродить  по  заливному  лугу.  Летом  от  него  сплошное   благоухание:  трава-мурава, медуница, ночные  фиалки, лютики,  ромашки,  кашка, клевер,  смолка,  а  чуть  в  сторонке  заросли  богородки  и   бледно-голубых   колокольчиков.  Повеет  легкий  ветерок,  так  ведь  звенят,  звенят…
                Колокольчики  мои,  цветики  степные,
                Что  глядите  на   меня,  светло-голубые…
      Только  ведь  некогда.  Как  говорит  бабушка  Василиса,  что  летом  ногой  коп, то  зимой  в  рот  хоп. Делу   --  время,  потехе  --  час.  Вот   за  ягодами  надо  бы  обязательно  сбегать,  ягод  летом  изобилие.  Земляника, морошка,  потом  малина,  чуть  позже  ежевика,  черника, голубика,  брусника,  костяника,  по  осени  клюква.  Любила  Светка   ягоды  собирать,  да  тоже  время  надо  для   этого  выкраивать.
     А  дома  сколько  хлопот  по  хозяйству?   И  огонь  в  домашнем  очаге  поддерживать  надо.  И  обед да  ужин  для  всего  семейства  приготовить  надо.  И  воды  наносить  в  кадку  надо.  И  дровишек  наколоть  да  натаскать в  избу  надо.  И  репы  накопать,  намыть  да  начистить  надо.  И  хлеб  расчинить  да  испечь  надо.  И  бельишко  для  мужа  и  для  ребятишек  постирать  надо.  И  пряжи  напрясть  надо.  И  рядна-холста-полотна  на  кроснах  наткать  надо.  И  домашний  скот  напоить-накормить  надо.  И  прожорливых  свиней  да  кур  ублажить  надо. Коров  подоить  надо…
      Только   и  поживешь,  что  в  детстве  да  в  девичестве,  а  когда  замуж  выйдешь…
     Дети  еще  спят,  муженек  еще  сладко  похрапывает,  а  ты  уже  на  ногах. По  дому  спозаранку  управишься,  так  тут  же  с  благоверным  и  пашенку  сохой   пахать  да  бороной  бороновать   надо.  А  если  ты,  на  беду,  овдовела…  Самой  и   на   пашню,  и  на  косьбу,  и  на  жатву,  и  на  рыбалку,  и  даже  в  лес   на  лесоповал,  затем  и   на  охоту. .
     Ох,   охота!  Охота,  это  если  чем-то  занимаешься  по   собственному  желанию  и  с  удовольствием.  А  тут  такая  охота,  когда    с  луком,  чтобы  стрелой  сразить,  и  на  дикого  кабана,  и  на  оленя. А  там  ведь  и  острые  клыки,  и  огроменные  ветвистые  рога.  А  случается,  даже  с  мужицкой  рогатиной  --  на   медведя. А  уж  Топтыгину  в  лапы  попадешься   --  все,  амба!  А  дома-то  голодные  детишки  маму  ждут…
      Ой,  да  и  замужем,  то  есть,  вроде  бы  за   мужем,  за  широкой  мужниной  спиной  живучи, чего  только  бабе  делать  не  надо!  И  все  это    как  бы  и  не  видная,  и  не  очень  уж  тяжелая,  незаметная  и  неблагодарная  бабья   работа,  а  за  день  так  набегаешься,  так  намаешься,  что  к  вечеру   руки  и  ноги  как  деревянные,  как  чужие.  И голова,  как   пустой  котел,  гудит  и  кружится  --  только  бы  до  подушки.  Верно  Райка  Балалайка  припевку  сложила:
                Ой,  родимая  сторонка,
                Я  и  лошадь,  я  и  бык.
                Потому  что  мама-жонка
                Самый  правильный  мужик.
        А  еще,  говорят,  в  день  Ивана  Купалы,  ровно в  полночь,  в  лесу  цветет  папоротник.  И  кто  подкараулит  этот  момент,  кто  увидит  и   сорвет  цветок  папоротника,  тот потом  все  жизнь  будет  счастливым  и  богатым.  Только  вот  цветёт  папоротник  редко,  очень  редко,  может,  раз  в  сто  лет,  а  может  и  реже  того.  Поэтому  ходить  в  лес  в  ночь  на  праздник  Ивана  Купалы   надо  каждый  год  и   сидеть  там,  стеречь-подстерегать   зорко,  и  непременно  в  одиночестве,  чтобы  никто  другой  не  видел  и   не  мешал.  И  Светка  Недотрога  постоянно  мечтала  подстеречь  это  колдовское  цветение,  и  в  девичестве,  бывало,  ходила  в  лес, да  и  сегодня  не  мешало бы сбегать,  но  к  вечеру  так  притомилась,  что  и  не смогла.  Ну,  мечтала,  только  бы  до  подушки,  только  бы  до  подушки.  А  легла   --  ну  вот  ты  ее хоть  убей,  не  уснуть. 
       Говорят, пока  с  печки  падая  на  пол  летит,  баба  семь  дум передумает. А  если  у  нее  да  бессонница  приключилась,  мамочки  мои,  чего  только  ей  в  башку  не  взбредет. Так  вот  и  у  Светки  Недотроги.  И  все  почему-то  мысли   вокруг  мерзкого  Блуда  вертелись,  пропади  он  пропадом.  А  тут  еще  как  назло  ночи  белые  летом  стоят.  И  нарочно  зажмуришься,  а  все  равно  сна  ну  ни  в  одном  глазу.  Потому  что  и  не  понять,  то  ли  рассветает  уже,  то  ли  еще  вечерние  сумерки  длятся.  И  на  душе  беспокойство  какое-то  смутное,  и  сама  душа  не  на  месте.  Какое-то  летучее,  нервное  ощущение,  нечто  похожее   на  темное,  неясное  предчувствие  неотступно  томило  отчего-то  трепещущее  сердце. Вот  же  досада  какая, а?
      Крепко  зажмурив  глаза,  она   даже  подушкой  голову  накрыла, и  на какой-то  момент    вроде  и  забылась  в  тягучей  полудреме,  когда  вроде  и  спишь  и  не  спишь,  а  грезишь  в  полузабытье,  как  вдруг  опять  этот  гад.  Ну  как  же,  как  же,  к  каждой  юбке  вязаться  --  о,  тут  его  и  хлебом  не  корми,  тут  он  назойливее  августовской  мухи,  но  к  ней-то,  к   ней  чего  пристает?  Да  еще  и  выкобенивается,  кобелина  похотливая. 
     А   теперь опять  уже  и  не  кобель,  а  волк.  Матерый  такой  волчище,  злющий-презлющий  прокрался,  ворюга,  из  лесной  чащобы  к  ее  избушке,  и  стоит,  сволочь,  щерится.  И  глаза  в  полумраке  жгучи,  как  угли,  и  остры,  как  жало  осы.  И  за  ним  еще  целая  стая   таких  же  злющих-презлющих  и  кровожадных  волчар.  Это  он,  он,  хазарин,  привел! 
      Вскочила  Светка,  и  так  сердце  у  нее  заколотилось, ну,  спасу  нет. Ну  что  ты  будешь  делать,  что  за  наваждение  такое,  второй  раз,  второй  раз  один  и  тот  же  сон. И  вдруг  враз   гадкий свой    сон  разгадала.  Правильно  князь  Иван  Гордый  сказал,  что  этот  притвора,  этот  прикидывающийся   бедненьким  да  несчастненьким-разнесчастненьким  хазарин  в  любой  момент  может   людям  пакость  подстроить. Да  про  него  же  все  говорят,  что  сколько  волка  ни  корми,  он  все  в  лес  смотрит.  И  как  это  она  сразу  не  сообразила,  что  вот  же  кто  --  волк!   И  каких  еще  волков  привел?  А  от  волков  добра  не  жди!
      Чутко  вслушиваясь  в  ночную тишину,  Светка  вдруг  услышала…
      Бой!  Где-то  неподалеку  слышались  грозные  звуки  ратного  сражения. Но   кто  и  с  кем  мог  поблизости  воевать?  Ведь  мужики-то  ушли  не  на  войну,  а  на  мирную  ночную  рыбную  ловлю.  Взяли  ли  они  с  собой  хотя  бы  мечи?..
      Или,  может,  это  ей  показалось,  почудилось?
      Нет,  ее  сны  почти  всегда  сбывались.  Почти  всегда.  Полная  самых  неприятных  предчувствий,  она  нахватила  на  себя  какую-то одёжку  и,  не  долго  думая, выскочила  из  избушки. Во  дворе, до  боли  в  ушах  напрягая  слух, настороженно  вслушалась  и  чуть  не  обмерла,  окаченная  ознобной  волной  страха.  От  озера,  оттуда,  куда  мужики  ушли  на  ночной  лов  рыбы,  доносились  приглушенные расстоянием  крики  и  лязг  оружия.  Толком  еще  не  понимая  и  не сознавая,  что  к  чему,  она  стремглав  помчалась  от  избы  к  избе,   обливаясь  слезами  и  крича:
       --  Эй!  Эй,  вставайте!  Вставайте,  наших  бьют!  Наших,  наших!..  На  озере,  на  озере!..
       Первая  на  ее  заполошный  зов  выбежала  из  своих  хором  княгиня  Мария  Краса  Русая  Коса.  На  какой-то  миг  тоже  приостановилась,  прислушалась  и  звонко  призвала:
      --  Бабоньки!   Девоньки!  Мамы-жонки!  Наши  мужики  в  беде!  Хватай,  кто  что  может,  и   --  за  мной.  Выручать  надо.  Помогать  надо.  За мной!
     И  через  минуту  толпа  поселковых  женщин,  не  чуя  под  собой  ни  земли,  ни  собственных  ног  мчалась,  запаленно  дыша,  бежала,  летела,  валом  валила  к   берегу  Чудо-озера.
      А  когда  прибежали…
                БАБЬЕ  ПОБОИЩЕ
       Ах,  как  они  бежали,  как  бежали,  как  бежали!    Словно  ураганным  вихрем  подхваченные,  неслись.  Спроси  кто,  зачем  бегут,  и  не  ответил  бы  никто. Не  женское  это  дело  --  кровавое  ратоборство,  война. Но  каждая  знала: надо! Чуяла: надо!  Сознавала: надо!  И  --  быстрей, быстрей,  быстрей!  Ой,  мамочки,  ой,  мамочки,  скорей!  Не  бежали  --  по  воздуху  летели  туда,  откуда   слышались  лязг  и  звон  мечей и щитов.  А  когда  примчались…
       А  когда  примчались, словно в столб, в каменную стену с разгона лбом  врезались. Обмерли, замерли, онемели, оледенели. Страшная, жуткая их  глазам предстала картина. Вся широко раскинувшаяся прибрежная отмель  была сплошь устелена недвижными, иссеченными мечами, исколотыми  копьями,  истекающими  кровью  телами  их   поселковых  мужиков.
     Их  мужиков!  Их  отцов,  мужей  и  братьев.
     И  хоть  бы  один,  хоть  бы  кто  один  пошевелился,  шелохнулся, приподнял  голову,  посмотрел,  привстал…  Словечко  бы,  одно  словечко,  полсловечка  бы  кто  вымолвил… Хоть  бы  один  кто  был  живой…  Все… Все  недвижимы,  словно  вросшие  в  землю  прибрежные  гранитные валуны…  Все  полегли…Все  до  единого… Все… Подлым,  коварным  было  внезапное  нападение вооруженных до зубов и многократно превосходящих  сил  врага.
     А  кровищи-то!  А  кровищи!  Неподвижные,  бездыханные,  мужики  и  мертвые   сжимали  в  своих  мозолистых  ладонях  рукояти  мечей  и  топоров,  и  лежали  лицом  вперед,  обращенным  к  врагу.  Ибо  ни  один  не  дрогнул  в  бою,  не  кинулся  вспять,  и  замер  в  такой  позе,  как  будто  продолжал  сражаться. А  возле  каждого  еще  и  гора  вражеских  трупов. Каждый,  значит,  дорого  отдал  свою  жизнь.  Каждый  дрался  один  за  семерых. А  то и  за  десятерых. А  князь Иван Гордый, так тот, пожалуй,  и  один  против  сотни.  Вон  сколько  возле  него  поверженных. 
     Только  разве  теперь  это  утешение?  Ведь   их  уже  нет  в  живых,  а  враги…
     А  враги  --  вот  они,  вот.  Сразу  видно  --  сила  несметная. Надменные,  злобно  самодовольные,  закованные,  как  черепахи,  в  свои  железные  панцири,  с  огроменными  щитами.  К  ряду  --  ряд,  к  ряду  -- ряд.  Стена.  Непробиваемая  стена.  Нет,  это  уже  не  дружина  по  сбору  дани,  не  просто  небольшая  банда  грабителей,  а   целое  войско!  Числом,  конечно  же,  стократ  превосходящее  небольшую  дружину  поселковых   мужиков. 
     Да,  это  было  войско.  Это  была  хорошо  организованная,  до  зубов  вооруженная  чужеземная  рать.  Это  было  полчище  отменно  вымуштрованное  на  рыцарских  ристалищах  и  закаленное  во  многих  разбойных  походах.  В  лучах  уже  выкатившегося  из-за  окоема  июньского  солнца  жарко  блестели  медные  шлемы,  остро  отточенные  наконечники  стрел,  длиннющих  копий,  железные  наплечники  и  огромные  мечи.  Жалко,  убого   выглядела  замершая  перед  этой  стеной  беспорядочная,  пестрая  толпа  одетых  кто  во  что,  а  то  и  вовсе  полуголых,  в  спешке  не  успевших  и  одеться,  растрепанных баб.  И  высокомерные  чужеземцы  уже  похотливо  щерились  в  предвкушении  ожидаемых  утех.  И…
      И   вот  уж   новость,  так  новость --  впереди  этих  нелюдей   кто  бы  вы  думали?  А  --  Ёська  Блуд.  Во, гад, а? Вот  кто, оказывается, коварно  привел их сюда,  вот  кто  подсказал,  что  после  празднования  дня  Ивана  Купалы  славянорусские   мужики   и   не  ждут  никакого  нападения,  и   после  вчерашней  медовухи  не  готовы  дать  должный  отпор. Вот  куда  он  втихаря  умотал  с  праздника.  Все  высмотрел,  вынюхал  и    донес, предупредил  и  науськал  норманнов. Готовятся, мол, славянороссы,  втихаря  оружие  начали  ковать,  так  что  лучше  упредить,  уничтожить,  утопить  в крови,  перебить  всех  мужиков  до  единого.  А  к  бабам  по  праву  победивших  подпустить  производителей  высшей  нордической  расы,  чтобы  не  славяне,  а  высшая  нордическая  раса  заселила  пока  еще  не  до  конца  разоренную   Русь.  Вот ,  внушил  врагам, и  вся  тактика  и  стратегия.
      Продал, сучара!  Предал.  Заплатили,  небось,  хорошо.  Или,  может,  он  и  живет  в  поселке  как  давно  засланный  доносчик.  Как  шпион.  И  теперь  стоит  здесь  впереди  и  похотливо  щерится:
    --  Ну,  что?!   Я  же  говорил,  все  моими…  Все  нашими  будете!   Все…  И  где  ни  ступит  наша  нога,  все  нашим  станет…
    И  эти,  приведенные  им  человекоподобные  образины  по-волчьи  щерятся.  А  зырят-то  как,  как  скалят  выпирающие  из  ощеренных  пастей  клыки.  Костлявые,  замурзанные,  поросшие  жесткой  щетиной  горбоносые  морды  перекошены  злорадной  ухмылкой. Что,  мол, красотки,  не  ждали?  Принимайте  гостей!  Уж  теперь-то,  теперь  они  здесь  полновластные  хозяева,  что  захотят,  то  и  сотворят.  По  праву  победителей!
     И  слё3ы  горючим дождём  брызнули  из  прекрасных  глаз  Светки  Недотроги.  И  кто-то  вскрикнул,  как  кричит  смертельно раненая  птица, и  кто-то  навзрыд  зарыдал, и с  безысходным  отчаянием  взвыла,  заголосила,  что-то  бессвязно  запричитала  какая-то  из совсем  уж  обезумевших  от  ужаса  женщин.  Ее  вопль  подхватила  вторая,  за  ней  третья,  кто-то  из  них,  захлебываясь  и  давясь  слезами,  схватился  за  голову,  попятился,  и  вот  уже  завыли,  заголосили,  запричитали  все.  Вид  изрубленных  в  клочья    мужей,  отцов  и  братьев,  тошнотворный  запах  крови  и  злорадные  ухмылки  врагов  исторгли  у  них  такой  неистовый,  такой  пронзительный  вопль,  который  должен  был  пробудить  и  мертвых.  Но,  увы,  не  пробудил. Как  лежали  недвижно  погибшие  мужики,  так  и  лежат.  И  тут  из  бабьих глоток вырвался ещё  более горький, ещё  более  отчаянный  крик: 
     --  О-о-о!..  У-у-у!. .  А-а-а!  Да  что  же  с   нами  теперь  будет?..Да  как  же  нам  теперь  жить?..Вечный  плен?  Надругательство?  Рабство?  А  у  нас  же  по  куче  мал-мала  меньшей  малышни…  А  у  нас  же  еще  и  наши  старенькие  отцы-матери… Да  у  нас  же  еще  и  наши  престарелые  дедушки-бабушки…  Да  у  нас  же…
     И  великой  болью  переполнилось  чуткое  сердце  Марии  Красы  Русой  Косы. Великой болью и  великой жалостью, и великой ненавистью  к  врагам.
     --  Тих-хо!  Тих-хо,  бабы!  -- раздался её властный,  командный  голос:  --  Тих-хо,  я  вам  говорю.  Тих-хо!
     И  все  разом  осеклись, давя  в  себе  рыдания,  притихли,  умолкли,  устремив  на нее  полуслепые  от  слёз  глаза.  А  она,  шагнув  вперед,  величественно,  гордо  распрямилась  и  призывно  вскинула  руку:
     --  Мужайтесь,  женщины!  Мужайтесь,  родненькие!  Негоже  нам,  славянорусским  мамам-жонкам,  перед  этой  инородческой  мразью  слабость  выказывать.  Не  гоже!  Памяти  храбро  сражавшихся  и  смертью  храбрых в неравном бою павших  мужиков  наших  недостойно.  Так  отмстим  же  за  них!  Не  сникнем!  Не дрогнем.  Бей  их,  гадов!  Бей!  А  этого…
     Гневно  сверкнув  очами, она  указала  на  попятившегося  Блуда:
     -- А  этого  подлюгу  не убивать,  живьем  взять.  Кастрируем  его,  хазарина  пархатого,  оскопим…  Чтобы  и  не  множилось  их  поганое  племя…   Мужское  его  хозяйство ему  вырежем…  Как  похотливого  кобеля  повесим!
      И  надо  же  --   эти  ее  слова  не  просто  ободрили  --  зажгли,   воодушевили  толпу.   И  княгиня   еще  звонче,  еще  решительнее  возвысила  голос:
    --  За  мной,  бабоньки!  За  мной!  Бей  их,  рази, громи!  Вперед!..
     Это  был  страшный,  громовой,  героический   призыв  к  бою. Призыв  к   мести.  К  отмщению.
     И  свершилось  невероятное.
     Нечто  дотоле  нигде  не виданное  и  не  слыханное.
     Для  чего праматерь  всего  сущего  матушка-Природа  создала  женщину?  Да  по  образу  и  подобию  своему  --  для  материнства.  Для  того,  чтобы  давать  жизнь.  Чтобы  любить  и  продолжать  жизнь.  Чтобы  продолжать  и   преумножать  род  человеческий.  А  тут…
     А  тут  произошло  нечто до  невозможности  противоестественное. Противоприродное.  Десятки,  сотни  тысячи  женских  голосов,  десятки,  сотни, тысячи  женских  проклятий  слились  в  единый,  леденящий  душу  женский   вопль,  в  единое   пронзительное  проклятие.  И  град  увесистых  булыжин  обрушился  на  головы   вражеского  воинства.  Бах!  Бах!  Бах!   Трах!  Ах!   Ах! И  точно  порыв  внезапно  налетевшей  бури,  точно  ураганный  смерч,  точно  все  сметающая  на  своем  пути  гроза,  вся  словно  обезумевшая  бабья  орава  ринулась  в  рукопашную. В  рукопашную  --  против  закованных  в  броню  чужеземных  ратников.  О-о-о!  У-у-у!
      У-у,  что  творилось!  Это  был  нигде  и  никогда  ранее  не  виданный  бой.  Это  было  не  рыцарски  стройное,  тактически  грамотно  организованное  сражение,  которое  ведется  по  четким,  неоднократно  опробованным  правилам  ратного  боя,  а  нечто  до  обалдения  невообразимое.    Шум,  вой, гам, тарарам,  злобно  оскаленные  в  истерике  зубы,  растрепанные  волосы,  горящие  дикой  ненавистью  глаза.  Будто   не   видя  вскинутых  им  навстречу  копий    и  обнаженных  мечей, кто  с  чем,  кто  с  огородной  тяпкой,  кто  с  навозными  вилами,  кто   с  лопатой,  кто  с  домашним  топором,  кто  с  серпом,  кухонным  ножом,  а  кто  и  вовсе  без  ничего,  с  одними  только голыми кулаками  да истошными воплями  женщины  --  женщины!  --  перли  напролом,  и  не  было  силы,  которая  могла  бы  их  остановить. Ибо  в   их   сердцах  вскипела,  в  их  жилах  взбурлила  и  всклокотала  горячая  кровь  их  свободолюбивых  отцов  и  дедов,  в   душах  возопили  все  поколения  их  гордых  предков.  И  всеми  владело  одно  общее  чувство  --  могучий  материнский  инстинкт, подвигающий  женщину  на  самопожертвование.    На  все,  даже  на  верную  смерть  ради  спасения,  ради  жизни  своей  кровиночки,  своего  дитяти.
    Так  ласковая  домашняя  кошечка, не  заботясь  о  себе,  свирепым  тигром  бросается  на   огромного  волкодава,  вознамерившегося  сожрать  ее  беззащитных  котяток.
     Так  беспомощная, слабосильная,   совершенно  не  способная   ни   к  какой   драке  наседка,  самоотверженно  жертвуя  собой,  кидается  на  зубастого, ядовито  вонючего  хоря, изготовившегося  передушить  ее  цыпляток.
     Так  крохотная  пичужка  коршуном  налетает  на   подкрадывающегося  к   ее  гнездышку  кота,    чтобы  спасти  своих  желторотых  птенчиков..
       Такой  был  порыв!
        Такой был  бросок!
         Такой   был  натиск!
      Молния  не  могла  бы  ударить  так  стремительно,  как  ошеломляюще  яростной  была  эта атака. 
      Поздно, поздно   и  несподручно  уже  было  обалдевшим  норманнам  отбиваться   мечами  и  копьями.  И  щиты  не  помогали:  слишком  уж  близко,  почти  вплотную  они  этих  сумасшедших  баб  подпустили.  И  вот  уже  и  моргнуть  не  успели,  как  на  плечах,  на  шее,  на  спине  у  каждого   во  мгновение  ока  скопом  повисло    по  десятку  вопящих,  визжащих,  кусающихся,  царапающихся   истеричек.
      Стервы!  Ведьмы!  Фурии!  Вмиг  образовалось    некое  человеческое   месиво,  припадочно дергающийся,  копошащийся  клубок   не пойми  где чьих  перекошенных  рож,  по-змеиному  извивающихся  разгоряченных  тел, дрыгающих  ног,  рук.  Истинно    --  собачья  свалка.
        Опамятовавшись  от  замешательства,   закованные  с  головы  до  пят  и  вооруженные  до  зубов  рыцари  все  же попытались отбиваться, надеясь  восстановить  расстроенный  боевой  порядок.  И  страшно,  жутко  было  видеть,  как  басурманские  копья  вонзаются   в   нежные  женские  груди,  как  остро  отточенные  мечи   врубаются   в  мягкие,  ничем,  никакими  воинскими  доспехами  не  прикрытые  девичьи  плечи, но  на  месте  павших  в  бою  красавиц  тотчас  вставали  другие,  и  бабы   --  простые  бабы,  как  сказали  бы  ныне,  обыкновенные  домохозяйки,  колют,  рубят,  бьют,  секут  чем ни попадя ненавистных им чужеземцев. Бах, бах! Бац, бац! Хрясь,  хрясь!
     А  из  поселка  на  подмогу  сражающимся  гурьба  за  гурьбой, ватага  за  ватагой  подбегали   и  те,  кто   почему-либо  замешкался  прибежать  вместе  со  всеми.  И  все  плотнее  и  плотнее,  все  теснее  и  теснее  сжималось   кольцо  жаждущих  мести  славянорусских  мама-жонок.  Где  уж  тут  обалдевшим  рыцарям   думать   о  каком-то хотя бы мало-мальском  подобии  ратного  строя,  о  правилах  благородного  рыцарского  боя!   Разве  это  война?  Разве  это  сражение?  Это…  Это..
      Ряды  закаленных  в    ратных  походах  рыцарей  качнулись, расстроились,  смешались.  На  лицах   отразилось  крайнее  изумление  и  замешательство.  Некоторые  обалдело  встряхивали  башкой,  точно  пытаясь  отогнать  дурной  сон,  у  других  губы  искривила  идиотская  гримаса.  Никогда,  никогда  и  нигде  не  бывали  они  в  такой  переделке,  и  ни   в  какой  стране  никто  с  ними  не  сражался   с  такой  поистине  безумной  отвагой.  То  один,  то  другой,  а  затем  уже  и   целыми  группами  считавшие  себя  непобедимыми   вояки   ошарашенно  рванули  наутёк. Но  бежать  в  железных  доспехах  так  быстро,  как  одетые  в  легкие  платьишки  женщины,  они  не  могли.  А  тут  еще, на  беду,  под  ногами  рытвины,  ямы,  кочки,  камни,  и  первого  же  беглеца  тотчас  настиг   карающий  удар.  Кто-то  из  преследующих  баб  со  всего  маху   врезал  ему  по  затылку  тяжеленной  огородной   мотыгой.  Из  расколотого  черепа  и  из  ушей  хлынула  черная  нордическая  кровь.               
       Та  же  участь  постигла  и  второго,  и  третьего.  Сзади  по  башке  --  бац, бац!  Бах,  бах!  Хруп, хруп! С  пятого,  с  десятого, с  очередного  голову  снесли,  срубили,  как  кочан  капусты. На  бегу  разбиваясь  на  группы   и  кольцом  охватывая  удиравших, мамы-жонки сбивали  их  с  ног.  Одного  -- подножкой, другого  дубиной  по  хребту,  третьего  глушили   ударом  обуха . Так  перед  убоем  на  мясо  обычно они  в  своем  домашнем  хозяйстве  глушили  свиней.  А  тех,  кого  ловили  живьем,  валили  на  землю  и…
     В  четыре  руки   --  за  голову,  четыре  --  за  ноги,  и    круть-верть,  круть-верть  башку  в  одну  сторону,  туловище  --  в  другую,  только  позвонки  в  свернутой  шее  хрустнули.  С   надменными  вояками   поселковые  домохозяйки  разделывались  так,  как  с  пойманными  для  супа   заполошно  орущими  петухами  и  курами.  И  вскоре  широкая  приозерная  равнина  была  густо  устелена  телами  доблестных  норманнских  беглецов,  и  головы  у  всех   были  повернуты  так,  что  лицо  находилось  там,  где  должен  быть  затылок.
        И  час…  Целый  час,  битый  час…  А,  может,  уже   и  два…  А  может,  и  все  три  часа   шла  эта  жестокая  битва.  Впрочем,  какая  битва   --  побоище.  Ибо  это  было  именно  побоище.  Да  еще  какое   --  бабье.  Бабье  побоище,  в  котором  беспорядочная,  не  организованная, не  обученная  ратному  делу  толпа  остервеневших  женщин  беспощадно  била,  разила,  уничтожала  врагов.  И   продолжалось  это  беспощадное  побоище  до  полного  разгрома, до  тех  пор,  пока  не  осталось   ни   единого  из   считавших  себя  непобедимыми   норманнских  вояк. 
       И  свершилось  небывалое.  Свершилось   ни  дотоле,  ни  после  того  нечто  не  укладывающееся  в  человеческом  разумении.  Мир  не   ведал   и  доселе  не  ведает,  мировая  история   и  ране не  знала  и  поныне  не  знает такого,  чтобы   считавшиеся  слабым  полом   женщины,  простые, попросту  по-русски  их  называя, бабы разгромили, в  пух и прах разнесли, раздолбали  вражескую  армию, одержали  военную  победу.  В  ряду  тех  нескончаемых,  редчайших, уникальных  в  истории  деяний, чистота  и  сокровенный    смысл   которых  превосходит  значимость  всех  известных  в  мире  побед,  это  была   победа  уникальнейшая.   
        А  между  тем  в   истории  об  этом  вы  нигде  не  найдете  ни  строки.  В  писаной,  разумеется,  истории.  Почему?  Ну,  об  этом  уж  вы  сами  думайте-гадайте,  но   только  в   предании,  то  есть  в    устной  молве,  в   памяти  людской   сохранились  о  том  смутные,  за  далью  времени  полузабытые  сведения. Да и  то  скупо, без желательной обстоятельности, ибо не  едва  ли  не  в  одном  только   древнерусском  городе  Гдове.  То  есть  там,  где  это  когда-то  произошло.  А  в  том,  что  это  было,  можете  не  сомневаться.  Ибо  предание  --  это  из  рода  в   род,  из  поколения  в  поколение  передающийся  рассказ  о  каком-то  реальном  событии.  Не  было  бы  события,  не  о  чем  было  бы  и  вспоминать.  И  мы  сегодня  можем  только  гордиться  тем,  какими  мужественными,  какими  самоотверженными,  какими  героическими  были  наши  славянорусские  мамы-жонки,  именуемые  впоследствии амазонками.
      И  опять  неотвязный  вопрос:  так  почему  же  столь  патриотически  значимое,  столь  исторически  грандиозное  событие  писаная  история  обходит  стороной,  умалчивает?  Уж  не  потому   ли,  что  это  величайший,  ярчайший   вдохновляющий  пример  для   потомков? Но тогда  кто же её, такую  историю, писал? Уж не Ёська ли Блуд? Или его  столь же блудливые потомки, среди коих  превеликое множество завзятых блудословов.
         И  еще  вот  о  чем  нельзя  не  сказать,  вот  о  чем  непростительно  умолчать.  Это  была  не  просто  самая  героическая,  но  и  судьбоносная  страница   в  долетописной  истории  древнерусского  города  Гдова.  Тогда,  может,  еще  и  безымянного.  Но  не  одолей  тогда  иноземных  захватчиков  славянорусские  женщины  --  не  было  бы   больше  на  свете  ни  самого  Гдова,  ни  даже  какого-либо  воспоминания   о  нем.
       Но  в  тот-то  момент,  в  тот   тяжкий  час  им  было  не  до  того,  чтобы   гордиться,  чтобы  упиваться   своей   великой  исторической  победой.  Запаленно,  судорожно,  хрипло  дыша  широко  открытыми  ртами,  они,  где  кто  остановился,  там  и  сели  в  изнеможении  на  землю. Не  сели,  а  обессилено  рухнули.  И  тупо,   прямо-таки  ничего   не  соображая   и  ничего  не  видя  перед  собой,  слепо  вперясь     в  пустое  пространство.   И  тишина  наступила  страшная,  глубокая,  бездонная.  Истинно  --  мертвая  тишина. Женщины  были  так  потрясены  происшедшим,  что  и  дара  речи  лишились,  онемели.
      Казалось,   никто    уже  не  в  силах   хотя  бы  погибших   оплакать. Так  и  сидели  в  полном  отупении.  Вообще всплакнуть  бы,  поплакать,  пореветь,  но   не  было  и  слез,  которые  хоть  как-то  облегчают  женскую  душу. Ни  чувств,  ни  мыслей.  Вроде  как  совсем  лишились  способности  думать, что-либо  соображать.   Лишь  глубоко  ввалившиеся  от  непривычного  напряжения,  от  усталости  и  пережитого  ужаса,  глаза  горели   не  догоревшей   яростью,  как  раскаленные  угли. Да  уже  и  не  яростью,  а  неизбывной  болью.
       Если  бы  у   них  было  зеркало, то  ни  одна,  поглядевшись  в  него,  не  узнала  бы  себя   и  от  ужаса,  чего  доброго,  и  вовсе  потеряла  сознание.  Грязные,  потные,  в  кровоподтеках,  синяках  и  ссадинах,  с   распухшими,  разбитыми  носами,  с  исцарапанными,  изодранными  щеками,  они  были  мертвенно  мрачны  и  каменно  неподвижны. И  по  лицу  потеки  пота,  и  волосы  растрепаны, и  до   крови  искусаны  посиневшие губы. Но  зеркал  тогда  еще  не было,  да,  впрочем,  и  до  того  ли,  чтобы   о  своей  внешности  думать. Ибо    и   сама  жизнь  представлялась  теперь    ненужной,  и   чем  больше  перед  ними  открывался  весь  ужас  их  положения,  вся  горечь    будущего,  тем  страшнее  накатывала  тоска.  Смертная  тоска. Смертельная.  Точно  и  сами  они  уже  обречены  на  неминучую  смерть. 
        И как-то  вдруг сами собой прорвались чей-то  стон, чьи-то  судорожные  всхлипывания,  чьи-то   сдавленные  рыдания,  чей-то  горький-горький  плач:
                Охти,  горе-то  нам,  вдовушкам,
                Нашим  горестным  головушкам,
                Как  нам  жить  теперь,  как  маяться
                Без  супругов  без  возлюбленных,
                Как  растить  нам  наших  детушек
                Разнесчастных  сиротинушек…
      И  бледным-бледным,  белым,  как  мел,  как  сама  смерть,  было  лицо  Марии  Красы  Русой  Косы.   Но,  услышав  эти  горькие  слова,  она  вдруг  встрепенулась,  словно  пробуждаясь  от  тяжкого  сна,  и  встряхнула  поникшей было  головой,  и  вдохновенно  засверкали  ее  прекрасные  очи:
     --  Бабоньки,  а  ведь  мы  их  одолели!  Одолели!.. Ну?  Ну,  не  будем  же  отчаиваться.   Не  надо.
     В  глубине  ее  души  тоже  горьким  комом  таилось  убийственно-леденящее  чувство  вдовьего  сиротства,  но   не  зря  же  она  была   княгиней,  супругой  князя  Ивана  Гордого,  за  что  ее  и  называли  Гордеевой.  И  теперь,  когда  в  поселке  остались  одни  лишь  женщины,  дети  да  старики,  должен  же  кто-то  его  заменить,  Кто   же,  как  не  она!  И  она  гордо,  превозмогая  боль  и  безмерную  усталость  во  всем  теле,  поднялась  с  земли,  распрямилась:
         --  Мужайтесь,  бабоньки!  Мужайтесь,  разнесчастные  мои  вдовушки!   Нам  сейчас  лучше  бы  помереть,  но  надо  жить.  Надо!  Надо  во  имя  наших  детей.  Надо  во  имя   сбережения  и  продолжения  жизни  нашего  рода-племени.  Надо…
        На  минуту  запнулась,  повела  взглядом  вокруг,  с  сожалением  вздохнула: 
      --  А  Ёську-то  мы  упустили.  Улизнул-таки,  и  тут  улизнул,  гад.  Ну  что  ж,  ничего,  мы   его,   выблудка, разыщем!  Мы  его,  ублюдка,  найдем,  поймаем.  Все  равно  поймаем   и  воздадим  по  заслугам.  А  сейчас  у  нас  и  без  того  полно  забот.  Надо  похоронить  наших  павших  в  бою   мужиков  и   сестер.  Да  и  эту  падаль,  --  указала  на   трупы  врагов,  --  закопать  надо.  Надо,  бабоньки,  надо.  Кто  же,  кроме  нас  сделает  это.  Надо…
        И  вдруг  опять  встрепенулась,  всматриваясь:
       --  О,  глядите,  глядите, а  там  еще  кто-то  шевелится!  А  ну-ка  волоките  его, бандюгу,  сюда.  Только  живым,  живым.  Смотрите,  не  пришибите  со  зла.  Я  ему  пару  ласковых  сказать  должна.  Ну-ка,  ну-ка…
       Приволокли.  Пригнали,  подталкивая  в  спину.  С  полубезумным  взглядом  затравленного  зверя,  он  был  до  отвращения  жалок  и  противен.  Едва  увидел  княгиню,  безвольным  кулем  повалился  ей  в  ноги,  на  брюхе  пополз   целовать ей  ступни,  жалобно,  по-щенячьи  скуля:
      --  Госпожа…  Госпожа…  Смилуйся!  Пощади!  Не  убивай!..
      --  Встань,  изверг!  Встань,  презренный  трус!  Встань  и  слушай,  --  властно  приказала  Мария   Краса  Русая  Коса.  --  Убивать  мы  тебя  не   станем. Мы,  может,  тебя  живьем,  как  поросенка,  на  костре  изжарим.  Но  мы  еще  подумаем,  как  поступить.  А  ты  прежде  ответь  на  мой  вопрос,  вот  тогда  и  решим.
        --  Слушаю,  госпожа.  Слушаю,  --  весь  дрожа  от  страха,  пролепетал  пленник, считая себя уже обреченным и все же тая надежду  остаться  в  живых.
       --  Скажи,  пёс… Скажи, тварь  поганая,  ты  рыцарь?  Зовут-то  тебя  как,  презренного  труса?
      --  М-м-м,  --  не понимая,  к  чему  клонит  княгиня  и  боясь  навредить  самому  себе,  промычал  тот.
        --  Н-ну?  Я  жду!  -- еще  строже  спросила   Мария  Краса  Русая  Коса.
        -- М-м…  Н-ну… Да… Р-рыцарь…  Р-рюрик…   
       --  Про  рыцарей,  насколько  я  наслышана,  говорят,  что  они  --  благородные.  Так, да?  И  ты…  Ты  тоже  --  благородный?
      --  М-м-м…
      --  Не  мыкай!  Отвечай.
      --  М-м-м…
      --  Эх, ты,  рыцарь!  Рюрик  Мазурик…А  где  же  твое… А  где  же  ваше  благородство, если вы, захватывая  чужие  города  и  селения,  прекрасных  дам насилуете, грабите, убиваете! А? Молчишь? Животные вы, а не люди.   Нет, хуже. Звери и те  не  позволяют  себе  к  своим  самкам  так  относиться.
     «Благородный  рыцарь»  как  стоял,  так  и  рухнул,  как  подкошенный,  и  опять  на  брюхе  пополз  целовать,  лизать  ей  ступни:
     --  Госпожа…  Госпожа…  Прекрасная  дама…  Благородная  дама,  помилуй,  пощади!  Это  не  я…  Не  я… Это   они,  они… Смилуйся,  смилуйся!  Не  надо…  Не  надо  на костре…  Не  вели  убивать,  вели  миловать…
      Брезгливо  отдернув  ногу  и  пнув  его  в  нос,  Мария  Краса  Русая  Коса   еще  строже  произнесла:
     -- Эх, ты… А  ещё  в  штанах…Небось, полные штаны и  наложил уже…«Благородный…» Тьфу,  завоняло  как  от  тебя… Слушай, шибздик… Если  мы  даруем  тебе  жизнь,  ты  согласен  вот  так  до  конца  дней  своих расстилаться  на  брюхе, ползать на  коленях  перед  нами,  прекрасными  славянорусскими  дамами?  Вот  так,  как  сейчас  передо  мной,  а?
      --  Да, да!  Согласен,  согласен!  Только  не  на  костре!  Только  не  убивайте!  --  возопил, заныл,  захныкал, застонал, возрыдал  пленник.  --  До  конца   дней…  Всю   жизнь рабом … Рабом…   Верно…  Верно служить  всем  вам,  прекрасные  дамы…
      --  Эх ты,  рыцарь, --  вздохнула  Мария  Краса  Русая  Коса. --  Дерьмо  ты,  а  не  рыцарь.  Мерзкий  разбойник,  грабитель  и  жалкий  трус.  А   вот  мы,  славяноруссы, не так живем. У нас знаешь какое  правило? Знаешь  какой  закон? Лучше умереть стоя, чем жить на коленях! Так нам наши  вольнолюбивые праотцы заповедали, и  мы  тому  нерушимо  верны. Без  громких  клятв, без  уверений,  душой, сердцем  верны. Понял?   
      --  Понял,  понял,  --  заспешил,  закивал  головой  «благородный  рыцарь»,   трепеща  от  страха  и  не  вставая  с  колен.  Как  он  был  жалок и до  отвращения   противен,  этот  бандит, грабитель  и  вор,  и  весь  дрожал, трясся, точно  его  на  морозе  бил  лютый  озноб.  И  было  слышно,  как  стучат, клацают, лязгают  его  хищные  зубы, и на него  не  хотелось  даже смотреть.
     --  Лучше  умереть  стоя,  чем  жить  на  коленях!  --  повторила  Мария  Краса  Русая  Коса,  и  лицо  ее  было   прекрасно,  и  голос  зазвенел,    и  вдохновенно  засверкали  глаза. --  В  том,  как  мы  этой  заповеди  следуем,  ты  убедился  сегодня  сам.  Так  вот,  убивать  тебя  или  зажаривать  тебя,  гадёныша,  так  и  быть, мы  не  станем.  Уходи.  Уходи  туда,  откуда  припёрся.  И  скажи  там  своим   «благородным»,  что  вот  так  будет  со  всеми, --  она  указала  рукой  на  устеленное  вражескими  трупами  поле,  --  со  всеми, кто  посягнет  на  нашу  землю,  на свободу  и  независимость  нашей  Родины.
     --  А  ты-то,  вечный  вор,  а  и  все  вы,  разбойники  и  грабители,  вся  ваша  рода-порода,  возомнившая  себя  самой  лучшей, высшей,  избранной  расой…  Вы  же  и  понятия  не  имеете,  что  такое  любовь  к  Родине.  Птице  нужен  воздух,  рыбе  нужна  вода,  зверю  --  лес,  а  человеку  --  Родина.  Вон,  смотри,  медведю,  чтобы  было  где  зимовать,  нужна  берлога.  А  если  у  него  берлоги  нет,  то   он становится  шатуном,  голодным  и  злым  бродягой.  Вот  и  вы  такие.  Шатуны!  Вам  же,  где  хорошо,  там  и  Родина.  Вам  же  чужое  теплое  стойло  да  сытое  пойло  превыше  всего  на  белом  свете.  Так  и  рыщете,  как  голодные  звери,  да  зло  творите.  И  мы  не  допустим  такого,  чтобы  вы  захватили  нашу  землю,  нашу  страну,  наш  славянорусский  поселок.  Не  допустим!  Не  позволим!  Не  дозволим!
       Так  говорила  Мария   Краса  Русая  Коса,  и  в  ее  прямом,  открытом,  гордом  безбоязненном  взоре  нельзя  было  не  видеть  сияния  некой  глубочайшей  и  сокровеннейшей  мудрости,  того  знания,  которое  дается,  пожалуй,   только  многодетным  матерям.  И  чья-то  могучая  воля  воодушевляла  ее,  и  каждое  слово,  казалось,  звенело,  предупреждало,  сверкало,  как  обоюдоострый  славянорусский  меч:
     --   И  мы,  славяноруссы,  мы, мирные  русичи,  сделаем  все   для  того,  чтобы не какие-то  жадные-кровожадные чужаки, не  инородцы, а  наши  дети и внуки были хозяевами нашей  земли.  И  дети  и  внуки  наших  внуков. И   правнуки  наших  правнуков. И  праправнуки  наших  праправнуков…
        И  плакали, горько плакали, заливались,  обливались,  давились  горючими  вдовьими  слезами  окружившие  ее  женщины.  И  они   были  согласны  с  ней,  и  верили  ей,  и  надежда  засветилась  в  их  прекрасных  очах. И  она  тоже  плакала,  ибо  понимала их,  и  сочувствовала,  и  соболезновала,  и  не  мешала  им  выплакаться.  Знала,  что  нет  горше  горя  для  любящей  жены,  чем  потеря  любящего  мужа.  Ведь  и  сама  была  теперь  горемычной  вдовой.  Тут  и  впрямь  хоть  волком  вой,  хоть  об  стенку  головой. И  даже  вечно  беззаботная  вещунья  кукушка   поперхнулась,  замолчала,  перестала  куковать  и  горько-горько,  задыхаясь  и   давясь  слезами,  заплакала  в  тот  горестный  час.
       А  примета-то  дурная.  Ох,  дурная!  Обычно  гадали:  сколько  раз  тебе  кукушка  прокукует,  столько  лет  и  проживешь.  А  тут…
       А  горше  всех,  отчаяннее всех  убивалась  Аня  Няня  Маманя.  В  этой   изящной,  стройной  и  хрупкой  на  вид  женщине  таилась  редкая,  неиссякаемая  энергия  и  непреклонная  воля,  и  никто  и  никогда  не  видел  ее  плачущей,  а  тут  слезы   вдруг  так  и  брызнули  из  ее   необыкновенно  красивых   глаз.   
      И  свершилось  чудо.  Там,  где  плакала  кукушка,  выросли  чудесные  лесные  цветки  --  кукушкины  слезки.
      А  там,   где  плакала  Аня  Няня   Маманя,  вдруг  расцвели  цветы  диковинной,  редкостной  красоты   --  анютины  глазки.
      Как  ни  крепилась,  не  смогла  сдержать  горючих  слез  и  княгиня  Мария  Краса  Русая  Коса.  И,  поникнув,  клятвенно  изрекла:
        --  Спи,  князь  Иван  Гордый.  Спите  спокойно,  дорогие  наши  мужья. Вечная  вам  светлая  память.  Мы  никогда,  никогда,  никогда  вас  не  позабудем…
       И  там,  где  плакала  Мария  Краса  Русая  Коса,  густо-густо,  под  цвет  ее   глаз  нежно-голубым  ковром   устелили  землю  полевые  цветки  --  незабудки…
       Выплакавшись, утерли  слезы   и   в  тяжком  молчании,  в  глубокой   скорби  взялись  за  работу.  Копали  могилы,  хоронили  погибших,  обкладывали  свеженасыпанные  могильные  холмики   гранитными  валунами.  Страдали,  горевали,  жалели,  и  захоронения  эти так  потом  и  стали  называть  --  жальники.
     Лишь  с  наступлением  темноты  чуть  живые,  еле  не  валясь  с  ног,  побрели  домой.  А  все  равно,  как  не  устала,  Светка  Недотрога  опять   до  утра  не  могла  сомкнуть  глаз.  И  голова   кружилась,  и  сердце  болезненно  сжималось,  и  руки  и  ноги  были  как  чужие.  И  все  смотрела,  смотрела  в  небо,  где густо  высыпали  яркие-яркие,  на  удивление  яркие  звезды. И  вдруг  они  показались  ей  несгораемыми, неугасимыми,  яркими-яркими человеческими  сердцами.  И  самым  ярким  среди  них  было  сердце  ее  Миши…  Ее  нежного-нежного,  ласкового-ласкового,  доброго-доброго  Мишеньки  Поцелуя.
          И  не  то  в  душе  зазвучало,  не  то  въяве  она  голос  услышала:
                Спится  мне,  молодешенькой,  дремлется,
                Клонит  мою  головушку  на  подушечку,
                Мил-любезный  по  сенечкам  похаживает,
                Легонько,  тихонько  приговаривает:
                Спи, спи,  ты  моя  умница,
                Спи,  спи,  ты  моя  разумница,
                Набирайся  сил,  моя  печальница,
                Ты  теперь  одна  в  семье  начальница…
          Ах,  Мишенька,  Мишенька… Вся  мокрешенька  от  слез  подушечка… Не  то  беда,  что  во  двор  взошла,  а  то  беда,  как  со  двора  не  идет…
    А души   павших  в  сражении  героических  женщин   Матушка-Природа  превратила  в  белокрылых  чаек,  и  с  тех  пор  они  с  жалобным  плачем   кружат  над  жальниками  --  могилами  любимых  мужей. 

                СТЫД  И  СРАМ  ВАРЯЖСКИМ  ЖЕНИХАМ
      Героическое  до  нас  дошло  древнерусское  предание.
      Слух.  Молва.  Так  никем  и  не  записанная  былина. Или,  вернее, быль.
      Или, еще  точнее,   устный  народный  сказ,  жанр   которого  можно  обозначить  как  героическую  трагедию.  И  как  всякое  фольклорное  произведение, которое с   незапамятных  времен  живет  в    народной  памяти,  неизбежно   в  нескольких  вариантах.
       Так  вот, один из  вариантов повествует, что  норманны-береги-карманы опять  заявились  в  поселок,  где  их  опять наголову  разгромили  славянорусские  бабы.  Нет,  не  сразу,  конечно.  Может,  год-два  спустя,   может,  все  пять-десять  лет,  а  может,  и  боле  того,  когда  они  о  своём  позорном  поражении  уже  основательно  подзабыли. Или,  не  исключено,  чтобы  отмстить.  А  скорее  всего  потому,  что  натура  у  них  от  рождения  прирожденно  такая:  вечно   шастать  по  миру,  разбойничать, пускать  реки  крови,  воровать, грабить  да  убивать  тех,  кто  жил  трудами  рук  своих.
       Хотя,  по  преданию,  на  этот  раз  все  было  и  дурнее, и  смешнее  того.  Поселок  тогда  уже  называли  Вдовом,  поскольку  мужчин  там    давно  не  было,  и  на   все  четыре  стороны  света  гремела  о  нем  слава  как  о  столице  прекраснейшего  на  земле  вдовьего  царства.  Впрочем,  называли  его,  это  царство-государство, еще  и  женским.  А  в  знак   особого почтения  еще   и  девичьим.  Потому  что  живут  там,  дескать,  одни  женщины,  одни  вдовы,  свято  храня  верность  своим  павшим  на  войне  мужьям. И  сами  ростят  своих  детишек.  И  сами   справляются  со  всеми  делами.  И    Царь   Девица  у  них  там,  и  вместе  с  ней  они  сами  правят  своим  царством-государством, и приумножают  богатства  его,  и  берегут  независимость  его.
       А  уж  деловые!  А  сноровистые!  А  работящие!   У  каждой   в  избушке  полно  шумливой  ребятни,  и  все  такие  послушные!  И  каждая  этому  только  радуется  да  приговаривает,  что  у  нее  ребятушек  в  дому,  что  оладушек  в  меду.   И  так  у  них  все   здорово  получается,  так  все  хорошо  ладится,  так  клеится  --    ну  слов  нет!   Ни  одна  женщина  во  всем  подлунном  мире  не  умеет  прясть   такую  тонкую  пряжу   и  ткать  такие   белые  полотна,  какие   ткут  эти  вдовы.  И  никто   так,  как  они,  не  может   выделывать  говяжьи  и  лошадиные  шкуры  и  шить  такие  мягкие,  удобные  и  теплые  сапоги.  И  искуснее  всех  плетут  они   из  конского  волоса  силки   для  ловли   зверей   и  сети  для  ловли  рыбы. Ибо    матушка-Природа   щедро одарила  их  способностью  и  к  земледелию,  и  к  скотоводству,  и  ко  всякому  ремеслу.
        А  еще  слух  шел,  молва  катилась,  что  и   город  у   них  такой.  Многие  говорят,  что,  мол,  глушь  несусветная,  леса  да  болота,  а  на  самом  деле  самый  что  ни  на  есть  взаправдашний  райский  уголок.  Ибо  красотища-то,  красотища  какая  вокруг!  Уже  ранней  весной,  едва-едва  пригреет  солнышко,  сразу  проклевывается сине-голубой  крокус,  зелеными  трубочками  вылезают  ландыши,  над  густой  шелковистой  травой  трепещут  прозрачные  крылышки стрекоз,  слышится  жужжание  пчел,  раздается  клекот  аиста,  запрокинувшего  голову  с  длинным-предлинным,  как  славянский  меч,  клювом.  В  густо  цветущих  кустах  сирени  задушевными  трелями  рассыпаются  соловушки.  Серебристые  тополя  роняют  на  землю  мохнатые  сережки.
      И  текут  там  в  кисельных  берегах  реки  молочные,  и  живут  они  там,  как  сыр  в  масле  катаются,  и  в  земле  таятся  клады  самоцветные,  и  от  всех  смертельных  болезней  бьют  целительные  ключи  живой  воды,  и  от  всяческих  бед  выручают  их  птицы  и  звери  лесные,  и  преисполнен  их  край  волшебными  силами,  дарящими  им  радость  и  счастье.
      Да-а,  потому,  мол,  нельзя  было  не  дивиться  тому,  как  все  у  них  спорилось.  Любое  дело,  что  называется,  без  всякой  натуги  и  спешки  горело  в  их  руках.  У  них  хорошо  доились   коровы,  куры  несли  крупные  яйца.  У  них  во  всякое  лето  был  завидный  урожай  на   заботливо  возделанных  грядках. Они  умели  печь  на  диво  пышные  блины,  у  них  никогда  не  подгорали  пироги,  и  потому, наверно, к  ним   всегда  спешили  делиться  печалью  и  радостью  соседки  из  ближних  и  дальних  деревень.  И   еще  потому  что  даже  знахарки,  ведьмы  и  колдуньи  были  у  них  приветливы,  на  удивление  гостеприимны,  заботливы  и  добры.  И  кто  бы  ни  пришел,  любого  гостя   непременно  встречали  жарко  натопленной  банькой  с  душистым  березовым  веничком.
         И  еще  широко  разнеслась  молва,  что   Мария Краса  Русая  Коса  и  все  вдовы   в  поселке  Вдов  наделены  от  матушки  Природы  особым  даром  --  даром  материнской  любви  и  жертвенности.  Поэтому   с    приходом  княгини   в  верховную  власть  во всем   вдовьем  царстве-государстве  наступила  эра  славянорусского  милосердия.  Оно  выражалось  во  внимании  и  заботе,  а  прежде  всего  в  жалости  и  бережному  отношению ко  всему  страдающему.  Вот  и  шли  к  ним  инвалиды   и    тяжело  раненые  в   сражениях.    Шли  больные  неизлечимыми  болезнями. Шли  калеки,  сироты  и  погорельцы.  Шли  такие  же  вдовы,  как  и  они. И  всех  здесь  принимали,  как  родных,  и  каждого  ждал  ночлег  и  приют,  и  всем  помогали,  и   привлекали  к  посильному  труду.
        А  уж  как  они  были  красивы,  эти   сердобольные  вдовушки!  Ну  до  того  пригожие,  до  того  обаятельные,  до  того  очаровательные  --  глаз  не  отвести!  Истинно  славянорусские  красавицы!  А  краше  славянорусских  красавиц,  как  все  знают,  никогда  и  нигде  во   всей   Вселенной  и   не  было,  и  поныне  нет.  Не  зря   же  и  песня  по  белу  свету  из  края  в  край  звенит:    
                Всю-то  я  Вселенную  проехал,
                Нигде  я милой  не  нашел.
                Я  в  Россию  возвратился, 
                Сердцу  слышится  привет…
             Да  ко  всем  этим  достоинствам  славянорусские  вдовы  в  посёлке  Вдов  были  якобы  и  сказочно  богаты:  на  золоте  ели,  из  серебряных  кубков   пили,    в  сафьяновых  сапожках  да  в  парче-бархате  щеголяли,  в  жемчуга   наряжались,  бриллиантовыми  сережками  форсили, нужды-горюшка  и  знать  не  знали,  и  ведать  не  ведали. В  их  садах  распевали  райские  жар-птицы, росли  молодильные  яблоки,  паслись  олени  с  золотыми  рогами,  серебрянорогие  козы,  свинка  -  серебряная  щетинка,  уточки  -  золотой  хохолок.  Ибо  и  золото,  и  серебро, и  драгоценные  камешки,  и  все-все  у  них  само  собой  из  земли  растёт. А  посему, стало быть, и  сердца  у  них  золотые, и  золотые  руки.
       Все  это  выглядело  бы  сказочной  идиллией,  но  это   была  никакая  не  идиллия,  а  результаты  того,  что  Мария  Краса  Русая  Коса  голубые  глаза  могла  творить  чудеса,  знала  волшебное  слово  --  «Надо!» И  сама  такой  красоты  неописанной,  что  ни  вздумать,  ни  згадать,  ни  в  сказке  сказать.  Такой  красоты,  такой  красоты,  что  от  нее  постоянно,  как  от  солнца,  исходило  ослепительное  сияние.  И  была  она  такой  ведуньей-колдуньей,  такой  знахаркой,  такой  всемогущей,    что   не  было  для  нее  и  ее  подданных    ничего  невозможного.
        И  какие  же  в  этом  вдовьем-девичьем  царстве-государстве  чудесные-расчудесные  благие  вершились  хозяйственно-государственные  дела!  Скажет   Мария  Краса  Русая  Коса  свое  волшебное  слово  «Надо!»   --  и  катятся  со  всех  сторон  телеги-самокаты  со  всяким-превсяким   добром. Прикажет  «надо!  --  и  тысячи   топоров-саморубов  рубят   лес,  возводят  хоромы  и  колют  дрова.  Завидев   неприятеля,  распорядится «Надо!»  --  и  тысячи   луков-самострелов  выпускают  в  непрошеных  гостей  тысячи  стрел, и  стрелы  у  них  не  просто  летят, а истинно  проливным  дождем, ливнем  льются, а  драчун-дубинка  дубасит  врагов  по загребущим  рукам  и  по  чем  только  ни  попадя.  Дадут  супостаты  деру,  потребуется  их  догнать,  взмахнет княгинюшка рукой  «Надо!»  --  и  вот  вам, пожалуйста,  сапоги-скороходы,  в  один  момент  догонят  и  по  ушам  надают,  и  так  басурману в  зад поддадут,  что  тот  откуда  пришел,  туда  кубарем  обратно  покатится. 
      Посевная, сенокос,  жатва,  уборка  фруктов  и  овощей,  обмолот  зерновых, помол  на  жерновах  --  всё  по  заветному  слову  «Надо!»  А  еще  на  чудесных-расчудесных  кроснах,  то  есть  на  волшебном  ткацком  станке  по  ее  повелению  «Надо!»   искусные  вдовицы  ткачихи  могли  выткать  даже  ковер-самолет.  Сядешь  на  него,  прозвучит  команда  «Надо!»  --  фьють,  и  ты   во  мгновение  ока  уже  в  другой  половине  земли. 
     А  подустал  ты  в  таких  чудесных  занятиях,  захотелось  освежиться   --  вот  тебе  волшебный  кувшин  о  семи  носиках.  Из  одного  можно  пить   живую  воду,  из  второго   мёд,  из  третьего  парное  молоко, из  четвертого  свежее,  из  пятого  кипяченое,  из  шестого  топлёное,  а  из  седьмого  --  куриное.
       Че-е-го?  Кто  сказал,  что  куриного  молока  не  бывает?  Это  у  вас  не  бывает.  А  у  них…
     А  еще  у  них  была  скатерть-самобранка.  И  чего  только  на  ней  само  собой  ни  бралось. И  сколько  ты  с  нее  ни  ешь,  яств  не   убывает.
      А  вечерами  после  трудов  праведных  они  пели.  Ах,  как  пели,  как  красиво  пели!  Они  и  днем  пели,  любили  петь. Рано  утром,  еще  до  восхода  солнца,  дружной  гурьбой  --  на  работу. Возвращались  затемно, но  так,  бывало,  со всех  сторон  и  звучит,  так  и  льется  --  «Нам  песня  строить  и  жить  помогает!»  И   на  работе   --  поют,  и  с  работы  идут  -- поют,  руки  в  мозолях  и волдырях, ноет  натруженное  тело,  шатает  от  усталости,  а  они  --  поют. А  уж  вечером…
     Вечерками  это  называлось,  посиделками. Соберутся,  усядутся-рассядутся  возле  чьих-либо  хором,  чаще  всего  на  скамеечках  под  окошком  Марии  Красы  Русой  Косы, а то  и  в  горнице  у  нее.  Тут  тебе  и  работа  с  собой,   у  кого  кудель  с  веретеном  для  пряжи,  у  кого  пяльцы  для  вышивания,  у  кого еще  что.  А  она  как  на  златострунной  лире   заиграет,  как  песнь    затянет,  а  они  как  подхватят,  как  грянут… У-у!   И  с  задумчивой  грустью  о  том,  как  синица  тихо  за  морем  жила, и  с  нежной  печалью  о  том,  как  девица  за  водой  поутру  шла.  И  о  том,  что  речка  движется  и  не  движется  вся  из  лунного  серебра…
      Ах,  до  чего  же  были  замечательными  эти  песенные  вечера!  А  почему?  А  потому  что  очаровательно  замечательными  были  и  песельницы,  и  их  голоса,  и  их  песни,  и  пели  они  душевно,  задушевно,  как  о  том  говорится,  пели  душой.  Душа  у  них  пела.  В  наших  деревнях  и  селах  и  сегодня  есть  женщины,  что  как  запоют,  так   сердце  сжимается  и   весь  ты,  словно  сам  не  свой,  сам  себя  не  чуешь  и  не помнишь,  но  все  реже  и  реже  встречаешь  таких.  А  по  этому…  По  телеящику…
     А,  послушаешь  --  только  рукой  иной  раз  махнешь.  Конечно,  на  вкус  и  цвет  товарищей  нет,  но  надо  бы    хоть  какое-никакое  и  чувство  меры  иметь.   Если  у  тебя  души  нет, то  сколько  ты  там  задницей  ни  дрыгай,  сколько  ни  выпендривайся,  толку-то  никакого.  Так  хоть  совесть-то  поимей,  не  чванься,  не  бахвалься  тем,  что  ты  Алка-зажигалка.
      Впрочем,  этим,  как  их…  Ну,  которые  норманны-береги-карманы, того  же  поля  ягоды,  у  них  тоже,  так  сказать,  свой  вкус.  Их  не  песни  славянорусских  вдовиц,  а  слух  о  ихнем  сказочном  богатстве  покоя  лишил.  Еще  бы,  у  них  же  даже  речка  из  серебра! А если верить россказням  шпиона-жидовина Ёськи Блуда, есть в  городе  Вдове особо охраняемый каменный  погреб. Дверь  там  установлена железная решетчатая, а за той дверью он якобы самолично видел хранящиеся  там  сокровища. Это четыре большие сороковые  бочки, четырнадцать  средних и малых, битком набитых золотыми и серебряными монетами. В том же погребу стоит котёл чугунный огромный, доверху заполненный драгоценными камнями, и те камни ярко сверкают в темноте, хотя туда никогда не заглядывает солнце.
      И  как  прослышал   про такое   этот,  как  его…  Ну,  конунг, как  на  Руси  стали  его  называть, ханыга,  курфист-курфа  Рорик, он  же  Рурик-Мазурик, так  у него и  глаза  на лоб. И  тут  и  он, и  его  мазурики-ханурики и  зашебутились, и  зашуршали что  тебе  тараканы  запечные.  Вот,  мол,  куда  надо  идти  из  захваченной  Ладоги,  не  в  Новгород,  а  в    город  Вдов.  Новгородские  ушкуйники   --  те  ведь  тоже   мужики  с  норовом,  запросто  и  по  шеям  накостылять  могут,  а  с  какими-то  там  молодицами-вдовицами  мы  в два  счета  разделаемся. Риск, конечно, тоже есть, но есть и ради чего рисковать. Известно же, давно известно, что кто не рискует, тот не пьёт шампанского.  Двинули?
     Двинули!
      Выступили,  по  разбойному  обыкновению  своему,  глубокой  ночью.  Чтобы,  значит,  незамеченными  и  к  городу  подкрасться,  и  под  покровом  темноты  в  тепленьких  постельках  спящих  голеньких  красавиц  голенькими    имать.  Военной  терминологией  выражаясь,  фактор  внезапности,  и,  по    праву  победителей,    захваченный  город   на  три  дня  на  полное  разграбление. Но...
      Но  случилось  что-то  непонятное.  Действовали  вроде  по  всем  правилам  военного искусства,  однако передовая дозорно-разведывательная  банда  скакала-скакала  и  вдруг  как  сквозь  землю  провалилась.  Ждали-ждали  от  них  условного  сигнала  или  гонца  --  ни  гу-гу.  Снарядили-отрядили  вторую  шайку-лейку,  ждали-пождали,  та  же  картина,  опять  ни  слуху,  ни  духу.  Фу-ты,  ну-ты,  ножки  гнуты,  оказия-безобразие!  И  тут  какого-то  ханурика,  едва  ли  не  самого  Рурика  Мазурика  осенило:
        --  Да  они  же,  хитрюги-бандюги,  давно  уже  в   обнимку   со  сдобными  вдовушками,  небось,  в  пуховых  перинах  тешатся!   Мы  тут   в  железных  доспехах  на  ледяном  северном  ветру  коченеем,  а  они… Ну,  я  им!..
      И  громыхнула  команда:
     --   Копья, мечи  --  к  бою!  За  мно-ой  впе-ерёд!
     И  застоявшиеся,  тоже  продрогшие  до  костей,  боевые  кони  так  рванули  с  места  в  карьер,  что  даже  сам  Рурик  Мазурик  на  своем  борзом  скакуне   далеко  позади  остался.  Что  его  еще  пуще  озлило.  А-а,  взвыл-возопил,  жеребцы,  кобели  похотливые,  как  баб  нюхом  учуяли,  так  и  про  конунга  своего  забыли.  Ну,  долбогребы,  вот  я  вам  ужо!  Вот  я…
      И  вдруг…
     И  вдруг  впереди  в  темноте  какой-то  шум-гам,  дикие  взвизги,  явно  предсмертное  ржание  коней,  еще  более  дикие,  душераздирающие  вопли  явно  гибнущих  рыцарей.  Во  многих  разбойных  нападениях,  во  многих  кровопролитных  схватках  побывал  Рурик  Мазурик,  но  такого  жуткого  ора,  такого  отчаянного  воя  нигде  отродясь  не  слыхивал.  Что  такое?  Аж  борзой  скакун  его  на  дыбы  вскинулся,  да  и  у  самого  волосы  дыбом.
     А  произошло  вот  что.  Прекрасные-распрекрасные  славянорусские  молодицы-вдовицы,  вынужденные  постоянно  обороняться-отбиваться  от   желающих  поживиться  за  их  счет  и  потешиться  над  их  женской   слабостью,  окружили  свой  Вдовий  городок  глубоким  оборонительным  рвом.  А  там,  на  дне,  торчком  навбивали  заостренные  колья.  А  для  маскировки  поверху  валежником  принакрыли.  Туда,  в   эту  хитромудро-коварную  бабью  ловушку  и  сверзлись   на  полном  скаку  мчавшиеся  всадники.  И,  пожалуй,  трудно  даже  вообразить,  как   визжали-орали  эти  живые  шашлыки,  нанизываясь  брюхом  на  колья.
      По  чистой  случайности,  благодаря  своему  споткнувшемуся  и  отставшему  от  других  борзому  скакуну,  оставшись  в  живых,  Рурик  Мазурик  попытался  угрозами  потребовать,  чтобы  вдовы  впустили  его  в  город.  Иначе,  мол,  выжжет  все  дотла  и  ни  одной  души  не  пощадит,  всех  погубит.  Но  в  ответ  просвистела  такая  туча  разящих  стрел,  что  незадачливый  конунг  вынужден  был  первым  поворотить  коня  и  увести  свое  более  чем  наполовину  поредевшее  полчище  туда,  откуда  привел.  Хотя,  как  сообщалось  в   пропавшей  Гдовской  летописи,  пытался  еще  хорохориться,  делал   сладкую  мину  при  кислой  игре.  Да  ну  их,  дескать,  на  хрен,  чего  с  этими  ведьмами  связываться.  Это  лишь  унижает  мужское,  особливо  рыцарское  достоинство.
       Не  потому  ли  Гдовская  летопись  и  пропала. Захватили  ее  впоследствии  эти  мазурики-ханурики  и  уничтожили. Это  же  перед  всем  белым  светом  был  бы  позор,  узнай  люди  о  столь  бесславном  поражении  «высшей  нордической  расы».  Не  зря  же  норманны  и  в  дальнейшем  не  раз  еще  осаждали  город  Вдов.  А  однажды,  видя  что  силой  им  тут  ничего  не  добиться,  решили  прибегнуть  к  более  надежному  способу  --  лести  и  подкупу.  Отобранные  Руриком  Мазуриком  красавцы  парламентеры   направились   к  красавицам  вдовицам  для  переговоров,  высоко  вздымая  белые  флаги.
     --  Сдаемся, мол,  сдаемся!  Не  стреляйте,  не  стреляйте,  не  надо  стрелять!
      А  за  ними  --  обоз.  Длиннющий  такой,  длиннющий,  телега   за  телегой  с  богатющими  дарами.  И  чего  там  только  не  было!  Груды  драгоценных  камней,  ожерелий,  бус,  золотых  брошей  и  колец  с  бриллиантами  и  прочих  женских  украшений.   Целые  кубышки  золотых  и  серебряных  монет,  беличьи,  куньи,  лисьи,  соболиные  и  горностаевые  меха.  Да  еще  и  с  наказом  безудержно  восхвалять неотразимую,  неповторимую  в  мире  красоту  славянорусских  вдов.  Дескать,  мы  на  этот  раз  не  завоевывать  вас  пришли,  а  сдаваться  вам  в  вечный  плен.  Ибо  имей  мы  каждый  по  сто  очей,  и  все  бы  сто  лишь  на  вас  глядели.
        Расчет, казалось,  был  гениальный,  беспроигрышный.  Вплоть  до заискивающего  самоуничижения.  У  вас, мол,  как  мы  наслышаны,  нет  мужей,  так  вот  и  берите  нас  в  мужья.  Причем  по  выбору.  Выбирайте,  принимайте  в  примаки  тех,  кто  понравится.  И  у  нас  конунг,   то  бишь,  князь  славный,  и  у  вас  княгиня  своя,  так  почему  бы   им  не  сговориться   да  не  объединить  свои  княжества  в  одно?  А  по  их  примеру  и  мы.
     Ну  какое  же, думалось,  не  дрогнет  женское  сердце,  кто  из   давно  уже тоскующих  в  одиночестве  вдовушек  устоит  перед  такой  рыцарски  великодушной  атакой.  И  вдруг…
       И  вдруг  в  ответ  раздался  неудержимо  заливистый  женский  хохот.  Дружный,  задорный,  издевательский: 
       --  Ха-ха-ха-ха!  Ха-ха-ха-ха!  Ой,  мамочки,  ой,  помрем!  Ой,  помрем  от  смеха!  --  волна  за  волной  накатывалась на  оторопевших,  обалдевших,  ничего  не  понимающих  норманнских  хануриков.  --   Ха-ха-ха-ха!  Вы  только   поглядите  на  этих  обалдуев.  Они  нас  за  кого  принимают, а? Если сами дураки, так думают, что и мы дурочки. А фигушки не  хотят? Ха-ха-ха-ха!  Ха-ха-ха-ха…
Вдоволь  нахохотавшись,  очаровательные  хозяйки  Вдовьего  города  выдвинули  свой  ультиматум.  Если,  мол,  вы  такие  хорошие-расхорошие,  бросайте  мечи  и  копья,  скидывайте  свои  железные  доспехи  и  добро  пожаловать. Объявляем,  мол,  женишкам  рыцарям  испытания-состязания  --  бег   наперегонки.  Мария  Краса  Русая  Коса   бежит  первой,  ваш   Рурик   Мазурик  --  за  ней.  Догонит  --  согласна  она  стать  его  женой.  Не  догонит – секир башка,  отрубаем  ему  голову. Понятно?  Так  же  и  всем  остальным.
      Замялись    норманны-береги-карманы,  захныкали,  заныли.  Да  мы  бы, мол,  и  не  против,  но  понимаете,  путь-то  был  неблизким, намаялись  мы  в   дорожке,  подустали,  притомились,  так  что   давайте  как-нибудь  в  другой  раз.
      Ладно,  снизошли  покладистые   молодицы-вдовицы,  так  уж  и   быть,  только  особой  веры   вам  у  нас   пока  что  нет,  поэтому  заходите,  но  поодиночке.  Будем  вам  смотрины  делать,  кто  на  что  гож.
      Опять  заколебались,  замялись  непобедимые  рыцари,  поодиночке  все-таки  страшновато,  но  в  то  же  время  где-то  на  донышке  души  все   же шевельнулось  мужское  самолюбие  --  ладно,  согласились.  И  начались  смотрины.  Своего  рода   женский  экзамен  мужикам  на  годность  в  мужья.  Строгий  и   пристрастный,  начиная  с  вопроса:
     --  Семейное  положение.  Женат?  Холост?
     --  М-м-м…
     --  Что   м-м-м?  Не  мычи!  По  возрасту  видно  --  женат.  Так  что  же,  свою  жену,  детишек  своих  бросил,  а  к  нам  сватаешься?  Хорош  женишок,  хорош  красавчик!
        --   М-м-м…
        --  Пшел  вон,  хлюст!  Следующий.  Ну,  ты  вроде  помоложе.  А  что  делать  умеешь?
       --  Н-ну,  это…  Воевать.  Мечом  рубить,  копьем  колоть.
       --   Ну,  это  и  дурак  умеет.  А  пахать?  Землю  пахать,  хлеб  сеять?
        --  М-м-м…  Н-н-н…
       --  Пшёл  вон!  Следующий.  Женат?  Холост?  Пахать, сеять,  косой  косить?
        --  М-м-м…  Н-н-н…
     --   Дуй  отсюда  туда,  откуда  приперся.   Следующий.  Так,  женат,  холост?  Пахать,  сеять,  урожай  убирать,  снопы  вязать…
     --   Н-н-н…
       --  Шпарь  отсель  и  больше  глаз  своих  бесстыжих  не  показывай.  Следующий.  Женат, холост?  Пахать,  сеять,  косить… Так.  Тоже  не  умеешь.  Ну, а  хоть  избушку  какую-никакую  для  семьи  поставить  сможешь?  Или  только  чужие  грабить  да  жечь  горазд?  Ась?
     --  М-м-м…
       --  Ах  ты,  погань!  Ну,  а  хоть  дровишек  нарубить-наколоть  можешь?  И   этого  не  умеешь?  Ах  ты  дубина  стоеросовая,  а  еще  в  мужья  набиваешься.  Вон!..
     И  --  коленом  под  рыцарский  зад:
     --  Вон,  заморская  сволота!  И  чтобы  духу  вашего  больше  здесь  не  было.  Не  то  и  вообще  кастрируем.
      И  вылетали  --  фью-ить!  -  один  за  другим  в  обратном  направлении  посрамленные  претенденты  на роль  мужей.
     Говорят,  и  сам  Рурик  Мазурик  крепкого  пинка  схлопотал.
     --  Откуда,  --  спросили,  --  такие  богатые  дары.  --  Награбил,  бандит?  А  теперь  награбленное  даришь?   Ах, ты!..
      И  так  поддали,  что  до  самой  Ладоги,  «аки  по  аеру»,  то  бишь,  как  подфутболенный,  по  воздуху  очертя  голову,  летел  без  оглядки.
     А  не  оглядывался  потому,  что  стыдно  же  все-таки.  Это  надо  же  так  опозориться.  И  главное  --  перед  кем.  Рыцарю,  конунгу  --  перед  бабами! И   долго  потом  еще  вынашивал  он  план отмщения,  но  судьбе  было  угодно  распорядиться  иначе.  Во  владениях  его  после  бесснежной  морозной  зимы  и   последовавшей  за  ней   летней  засухи   с   бесконечными  лесными  пожарами   начался  голод.  Да  такой  страшный,  что  пришлось  идти  с  протянутой  рукой  в  процветающее   вдовье  царство.
      Опасаясь,  что  получит  отказ,  крепко  приунывший  конунг  вдруг  заявил,  что  он  же  в  общем-то  и  не   чужой  совсем  славяноруссам,  что  он  вовсе  и  не  Рюрик,  а  просто  Юрик,  и   вообще  извлек  уроки  из  прошлых  недоразумений  в  соседских  взаимоотношениях.  Что  ж,  голод,  как  встарь  говаривали,  не  тетка,  «кали  не  даяси,  дак  и  святых  прадаси».  То  бишь,  подступит,  прижмет  голодная  смерть,  так   все  самое  дорогое  для  тебя  продашь.
       Ну,  а  женское  сердце,  известное  дело,  отходчиво. Да  и  как  не  помочь,  как  не  поделиться  хлебушком  насущным,  если  соседи  мрут.  Конечно,  норманны-береги-карманы  соседи  недобрые,  злые,  Ну  да  что  ж  поделаешь,  все  равно  жалко.  И  Мария  Краса  Русая  Коса,  посоветовавшись  со  своими  вдовицами,  разрешила  ихнему  обозу   за  выделенными  припасами  во  Вдовий   город  пожаловать.
        И  встретили  гостей  по  славянорусскому  обычаю  приветливо,  хлебом  да  солью.  То  бишь  хлебосольно  накрыли  вынесенные  на  Красную  площадь  чистенько  выскобленные  да  вымытые  дубовые  столы.  Нет,  скатерть-самобранку  на  всякий  случай  расстилать  не  стали,  припрятали.  Гостюшки-то  такие,  что  с  ними  дружи,  а  каменюку  наготове  держи.  Но  уж  угощений,  солений-варений  наготовили…  О-о!..
       Да,  и  чего  только  там  у  них  ни  было!    По  центру  впечатляющей  емкости  бадьи  и  кадки   с    медом.  Мёд  в  сотах,   мёд  нацеженный,  мёд  весенний,  мёд  летний,  мёд  липовый,  мёд  гречишный,  мёд  зимний засахаренный,  мёд  ставленый.  То  есть  напиток  такой  медовый,  его  еще  медовухой  зовут.  Сладкий,  резковатый  такой,  а  забористый  --   у-у, будь  здоров!  Лучше  любого  заморского  вина.
      Ну,  а  поскольку  хлеб,  как  известно,  всему  голова,  то  хлебобулочных  изделий  --  навалом,  горками.  Свежеиспеченные  буханки  душистого,  домашнего.  Караваи  белого,  пшеничного,  пышные,  подрумяненные  в   печи  пироги  с  земляничной, черничной,  брусничной  да  клюквенной  начинкой,  с  капустой,  ватрушки  с  творогом  и  всякие  прочие куличи- кренделя.
     А  мясного-то,  жареного,  пареного,  тушеного   --  о!   На  протвинях  только  что  снятые  с  огня  тушки  годовалых  бычков  и  нетелей,  аппетитно  присыпанные  укропцем,  зеленым  лучком  и  прочей  петрушкой, словно  задремавшие,  нежились  целиком  испеченные  поросенки.  А  на  расписных  фарфоровых  блюдах  исходили  ароматным  парком  еще  горяченькие,  тоже  только-только  из  печи  вынутые,  темнокоричневые  гуси,  индюки,  утки,  куры.  Здесь  же  окорока,  крупными  ломтями  нарезанная  ветчина,  толстенные  кольца  домашних  колбас  и  прочей  мясной  всякой  всячины.  Объядение! Пальчики  оближешь.
      А  уж  рыбы-то,  рыбы   --  аж дубовые  столешницы  прогнулись.  Рыба  вареная,  рыба жареная,  рыба  вяленая,  рыба  копченая,  рыба  сушеная…Рыба,  рыба,  рыба… И  почему-то  первым  делом  в  глаза  бросалась,  сама  в  рот  просилась  этакая  в  меру  подкопченная,  золотистого  цвета  рыбешка  под  чудным  названием  ряпушка.
     --  Ой,  -  догадались,  удивились,  вытаращили  глаза  изумленные  гостюшки,  --  золотая…  Золотая  рыбка!
       И  замерли  в  немой  зависти: «Это  надо  же, а?  Золотые руки, золотые ложки, на  золоте  едят,  в  золото  обряжаются, в  золоте  купаются,  золотом  питаются…  Живут  же  люди, а?!»
       А  разносолов,  а  деликатесов  всяких-разных,  каких    и  в  конунговых   руриковых кухнях  не  подают.  От  одного  вида  слюна  --  веревкой. Накинулись  оголодавшие  оглоеды  -- аж  сопят,  аж  кряхтят  от  удовольствия,  и  только  за  ушами  хрустит.  И  медовуху  --  ковшами,  ковшами,  а  кто  и  прямо  из  ведра  через  край,  а  кто  из  двухведерной  баклаги,  а  кто  и  вообще  из  бадьи.  И  хлещут,  и  хлещут,  и  лакают,  и  жуют,  жуют,  а  кто и  не  прожеванное  глотает,  аж  давится,  а  все  пихает  в  себя,  пихает,  едва  ли  сознавая  что  и  в  каком  количестве.  Одно  слово  --  оглоеды.  Норманны.  Люди  нордической,  особой  породы. Алчной. Обжористой.  Высшей.
       А  гостеприимные, щедрые, радушные,  жалостливые,  сердобольные  славянорусские  вдовушки  знай  подливают, знай  подсыпают да  подкладывают:
     --  Ешьте,  миленькие,  ешьте!  Кушайте,  бедненькие,  кушайте!  Наголодались,  намаялись,  по  белу  свету  неприкаянно,  без  женского  пригляда  шастая.  Питайтесь…
      Наконец,  кажется,  напились,  наелись,  насытились  --  глаза  осоловели,  брюхи  так  распирает,  аж  дышать  трудно.  Начали  утробно  икать, по-лошадиному  отрыгивать,  пришлось  даже  железные  панцири  с  себя  скидывать.  И  хоть  бы  кто  догадался  спасибо  хозяйкам  сказать.  Где  там,  у  них  свое  понимание  отношений  к  женщинам.  Нажравшись  да   обалдев  от  медовухи,  и  давай  на  свой  норманнский  манер  ловеласничать,  заигрывать,  к  миловидным  вдовушкам  приставать. 
        А  среди  славянорусских  вдов  не  одна  только  Светка  Недотрога  недотрогой  была.  Не  терпели  они,  не  любили,  чтобы  их  вот  так  кто  ни  попадя  липкими  лапами  лапал.  Ну,  сперва-то  из  вежливости  этак  деликатненько, легонько,  даже  как  бы  ласково,  по  рукам,  по  рукам,  значит,  а  потом…  А  потом,  видя,  что  неблагодарных  нахалов  не  унять,  и  со  всего  маху  по  мордасам  --  хрясь:
        --  Н-на,  --  немчура  похабная.  -  Н-на!
         И  так  это  ловко,  так  здорово  это  у  них  получалось,  что  оторопевшие  от  такого  поворота  охальники  летели,  кувыркаясь,  в разные  стороны,  как  растрепанные  соломенные  тюфяки.  Обхохотаться  можно  было,  видя  их  выпученные  пьяные  бельма,  и  как  они  рукавами  утирали  кровавые  сопли,  поползшие  из  расквашенных  в  лепешку  горбатых  норманнских  носов.  Умора!
     Ну,  хоть  тут  бы  и  поостыть,  и  образумиться,  и  приунять  свою  разгоревшуюся  нордическую  похоть,  так  где  там!  Какой-то  из  этих  породистых  жеребцов  схватился  за  меч.  До  того  его  жеребячье  естество  распалилось,  до  того  оскорбленное  мужланское  самолюбие  взыграло,   что  с  мечом  --  на  женщин.
      Ну что  ты  будешь  с  этим  дураком  делать!  Для  него  же,  бандюги  кровожадного,  женщин… Да  ещё  и  заступиться за  них  некому. Но…
     Но  это  же  были  славянорусские  женщины.
      Это  были  гордые,  вольнолюбивые  труженицы  и  бесстрашные  воительницы.
      Это  были  богатырши.
      Статью  и  духом  --  одна  к  одной. Дочери Солнца.
      Не  зря  же  не только  по  преданиям,  но  и  по  многим древнейшим письменным  источникам  известно,  что  славянская женщина  с  незапамятных  времен  удивляла  и  восхищала  иноземцев  своей  статью,  красотой  и  самоотверженностью.  Многие  не  только  западно-европейские,  но  и  арабские  хроники  свидетельствуют,  что  славянки  отличались  не  только  необыкновенной  внешней  очаровательностью,  но  и  богатырской силой,  и  редкостной  выносливостью,  и  невиданной  в  других  землях  преданностью  своим  мужьям.
      А  более  всего  дивил  иноплеменников  тот многими  описанный  факт.  Ч то  они  на  равных  сопровождали  мужчин  в  ратных  походах.  И  не  просто  сопровождали  --  рука  об  руку, плечом  к  плечу  шли  с  ними  в  самую  жестокую,  самую  кровопролитную  сечу,  помогая  одерживать  победу.
      Одна  к  одной  --  плечом  к  плечу,  стеной!  --  они    встали и  здесь, против  непрошенных  и  неблагодарных  иноземных  пришельцев.  И  трудно  даже  вообразить,  что  тут началось,  что  творилось.  Понимая,  какие  им  грозят  надругательства,  гордые  вдовы  отчаянно  ринулись  в  бой,  в  рукопашную  схватку.
     О,  эта  загадочная,  с  виду  обаятельно  смиренная  скромница,  очаровательно  прекрасная  славянорусская  красавица!  Ты  еще  прекраснее,  еще  очаровательнее,  еще  пленительнее  в  праведном  гневе  своём.  Один  вид  вооруженного  отобранными  у  рыцарей  мечами,  кухонными  ножами,  печными  ухватами  и  еще  леший  его  знает  какими  рожнами,  яростно  вопящего  длинноволосого  воинства  поверг  чужеземцев  в  панический  ужас.  И  они,  замертво  падая  под  ударами  преследующих  женщин,  позорно  бежали   с  поля  небывалой  брани.
     А  непокорный  город  Вдов  как  был,  так  и  остался  непокоренным.
     Говоря  нынешним  слогом,  независимым,  свободным,  суверенным. И  не  было  в  тех  краях  города  богаче  Вдова.  И  не  было  в  той  стороне  города  прекраснее  Вдова. И  не  было  города  свободолюбивее  Вдова. И  спокойно, свободно  катила  в  раздольное,  подобное  морю,  Чудо-озеро,  тихоструйные  воды  река  Вдова. И  свободно, мирно, вольно  жило-благоденствовало  славянорусское  Вдовье  царство-государство. И  долго,  долго,  нескончаемо  долго  длилась  эра  славянорусского  милосердия.
      Ибо  это  было  совершенно  особенное  царство  --  царство  славянорусского  матриархата.
      Можно  сказать  --  идеального  матриархата. 
      Ибо  все  в  этом  царстве-государстве  славянорусские  женщины  делали  сами.  Сами  дремучий,  первобытно-девственный  лес  корчевали.  Сами  деревянной  сохой  каменистые  поля  пахали.  Сами  бревна  тесали,  сами   расписные  хоромы,  дома-терема  да  пятистенные  избы  ставили.  Сами   огороды  возделывали,  сами  сады  сажали,  сами   по  улицам  цветники  разбивали.  Сами  на  охоту ходили,  зверя  добывали,  сами  рыбу  ловили.  Сами,  без  погибших  мужей,  детишек  на  ноги  поднимали,  уму-разуму  наставляли. Сами,  без  единого  мужского  голоса,  на  вече  об  общегородских  и  общегосударственных  нуждах  судили-рядили,  сами  своим  царством-государством  правили,  сами  свое  независимое,  суверенное  царство-государство  от  норманнов  и  прочих  псов-рыцарей  стойко  обороняли.
      Необъяснимым  образом,  несмотря  на отсутствие каких-либо  письменных  источников, память  об  этом  легендарном  вдовьем  царстве-государстве, пронзая  века, свято  и  благодарно  хранится в  людских  сердцах.
       И  остается  лишь  благоговейно,  по  русскому  обычаю,  низко-низко  поклониться   светлой  памяти  героических  славянорусских  женщин.
      Ибо  не будь  их, вновь и вновь  повторим,  не  сверши  они  свой  трудовой  и  ратный   героический  подвиг,  не  было  бы  и  города  Вдова. А    ведь  это здесь, в девичье-женском царстве-государстве героических вдов густо расселившаяся в те  незапамятные времена  славяно-русская  нация и начала ещё неосознанно, но  уверенно  проявлять разностороннюю  одаренность  и  силу,  гигантскими, истинно  семимильными  шагами  устрем ляясь  к  расцвету, к  вершинам  своего  грядущего величия.
                РУССКАЯ  ЖЕНЩИНА --  ВСЕГДА ЗАГАДКА
     И  когда  говорят,  что  в  каждом  городе  своя  особая  атмосфера,  то,  пожалуй,  в  Гдове  это  особенно  отчетливо  ощутимо.  Сейчас,  как  и  тогда,  в  глубокой долетописной  древности  путника  завораживает  истинная  первозданность  истинно  русской  природы,  навечно  застывшая в  чарующих  пейзажах и  ландшафтах. И  сам  Гдов,  городок  небольшой и  небогатый,  радует  глаз  простотой, уютом  и  какой-то  самобытной,  так  и  хочется  сказать, первозданной  гармонией  бытия.
      Не  имея  понятия о  его  древнерусской  значимости, ещё  не бродят здесь  кишмя киша толпы  туристов, поэтому всё  небрежно  в стихийном беспорядке заброшено и запущено, ибо своим перед своими чего ж выставляться-выпендриваться, какие есть, такие и есть. Простые, открытые, добрые русские  лица, лишенные  даже  малейшего  намека  на  самодовольство, чопорность и  тем  паче  --  высокомерие.   И вообще  городок как был, так и остаётся самим собой, не  стараясь хоть  чем-то выхваляться. Малолюдство  да благостная тишина, такая, что аж в ушах звенит, домишки утопают в гуще садов,  окошки расцвечены мещанской геранью и прочими ярко рдеющими серёжками. Что уж тут говорить о каких-то масштабах-дистанциях огромного размера, если  даже центральная улица из одного  до другого конца  просматривается насквозь. И никаких тебе троллейбусно-трамвайных проводов, ибо троллейбусы тут отродясь не водились и не водятся, и никаких рельс, ни  трамвайного  лязга, ни городских автобусов или какого иного  намёка на  цивилизацию. Да, в общем-то, и зачем, если  весь Гдов  можно за  два-три часа пешком на своих двоих обойти. Любо-дорого  по  свежему  ветерку в  прохладный день  побродить-прогуляться.
      А уж  вечерком, когда начинает колдовать волшебный, чарующий сумрак белых ночей, когда и  вовсе замирают любые звуки, городок  погружается прямо-таки в допотопное оцепенение. И воздух в эти умиротворенно-ласковые часы напоен отнюдь не фабрично-заводскими  дымами и не бензиново-дизельной вонью, а самыми что ни на есть природными ароматами. Таким  настоем  цветущей сирень-черемухи, жасмина, алых да белых роз благоухает  --  аж  в  голове  этакое  легкомысленное  кружение.Заезжему гостю  или  случайному путнику заночевать  здесь  одно  удовольствие. Впечатление такое, будто в  сказку попал.
   Или, может, всё окружающее  только снится, грезится? Начинает теряться само ощущение современной реальности  и, что ты попал в сказочно-былинный  город, который, лишь тряхни головой, мгновенно  растворится, исчезнет в  призрачно-голубоватом сиянии.  Ибо и само время кажется, течёт здесь неощутимо, словно остановилось, словно и вовсе не течёт.  А может, и течёт, но городок каким-то непостижимым  образом  противостоит  его  потоку, сохраняя  свой  едва ли не допотопный внешний облик. Куда ни посмотришь, за исключением  одного  более-менее  современного  квартала жилых многоэтажек, сплошь  бревенчатые  хоромы, терема, избы да  избушки. Только и всего, что не  на курьих ножках.
        Уже  одно это дает почувствовать сегодняшнему цивилизованному  человеку  непрерывную и неразрывную  связь настоящего с давно прошедшим.   От такого  старорусского  типа строений  в самом воздухе, что ли,  невидимо  разлито  нечто  такое, что  можно  назвать  лишь русскостью. Или, пожалуй, русским  духом. То  есть  здесь застоялось что-то  от  самобытной человеческой психологии, от  древнерусской  жизни, от некой  подспудной архаики. Сразу видишь, что  городок стар, очень стар, но ведь старость  --  это  прошлое, живущее  в  настоящем.  И в этом спрессованном  многовековом настоящем  будто бы  таится  ответ  на  столь же  многовековой  сакраментальный  вопрос  о  смысле  жизни и  даёт возможность прикоснуться  мыслью к  нашим русским родовым  корням, задуматься о былом, о  наших праотцах и праматерях, чтобы сверять по ним  своё житьё-бытиё,свои дела и поступки.
      Особый,  ощущается,  в  этом  краю  и  климат.  Природный,  можно  сказать,  микроклимат,  и  одновременно  микроклимат  исторический.  Природа  здесь  не  только  фантастична  для  этих  широт,  но  и как-то  по-особому  одухотворяюща.  Чего  стоит  одна  только  бесконечно  изменчивая,  волшебная  игра  света,  отраженная зеркальной  гладью неоглядного, как  море,  Чудского  озера.  Истинно  Чудо-озеро! Зеркало небес, обрамленное  изумрудной  зеленью словно  погруженных  в  вековую  дрему   русского  почти  первобытно-девственного леса. В  ясные  солнечные  дни  не  воздух  -  хрусталь. Дышишь  -  не  надышаться.  Любуешься  -  не  налюбоваться.
      Оглянешься  --  красота несказанная! Легкая, еле видимая голубая дымка скрывает  границу между водой и небом, берег и плавно округлые мысы песчано-золотистой  невесомостью словно плавают в синеве среди иссизо-белых облаков,  а  повдоль  россыпь  старинных  деревушек,  между  которыми  причудливо  вьются  проселки, и каждый  уголок, каждая картина овеяны и благославлены духом  русскости.  И  в  этой  былинно-легендарной  русскости  --душа  нации, ее духовный  запас, ее  недра, откуда и бьют  невидимо  глубинные  родники неповторимо непокорного русского  духа, именуемого  русским  патриотизмом.
      А  ещё  знаете,  что  мне  хочется  сказать  вам,  поскольку  давно  живу  в  этом  милом  городе?  Чем  дольше  живу  здесь,  тем  больше  люблю  гдовичей. Оглядываясь  и  приветливо  улыбаясь тебе, каждый  уже одним  добрым взглядом своим  словно хочет сказать: «Вот она  --  наша  Матушка-Русь! Вот  она  --  Россия!  Та  обетованная  Россия,  которой  искони  гордятся  русские  люди.»  И  улыбка  при  этом  такая открытая, такая  добрая, такая  широкая, такая  искренняя,  какая  бывает  только у русских  людей.  Особенно  - у девушек и  женщин.
         Да, да,  не  смотрите с  понимающей  усмешкой.  Доводилось мне  общаться  с  разными чужеземцами. И  с  европейцами, и  с  азиатами, и  с  особо хвалеными   североамериканцами.  Те  вечно  с  улыбкой,  но  улыбка у них  деланная, точно  нарисованная  и приклеенная  маска, и  потому  холодная, вызывающая отчуждение и  недоверие. То есть  губы  растянуты в улыбке, а в глазах  --  холод.  А  русский  человек  улыбается  глазами.  А  глаза  --  зеркало души. 
      А  у  гдовских  девушек и женщин  совершенно  особенные  глаза.  Добрые. Нежные.  Ласковые.  Красивые.  Ибо  ну  как  на  подбор  собраны  здесь  самые  красивые, обаятельные,  истинно  русские  красавицы. И если какая из них  улыбнется  тебе… 
     А, да  что  говорить! Не  случайно  же  знатоки  уверяют,  что во  всем  мире  нет  больше  таких  красавиц, ибо  в  генетическом  коде  русских   женщин  и  сегодня  сохраняются прекраснейшие  свойства  души  и  характера  их  героических  и  милосердных  прапрабабок. Нет, не  зря  же, наверно,  по всему  миру  идет молва, что русская  женщина  --  это всегда  милая загадка, всегда полная  неожиданностей  прекрасная  тайна.

























                СОДЕРЖАНИЕ

Зачин……..…………………………………………………………………….5
Дети Солнца…….…………………………………………………………..6
Живая  вода………………………………………………………………….13
Вещий  сон………..………………………………………………………….20
Заветы бабушки Василисы…………………………………………..33
Иван да Марья…………….……………………………………………….46
Иванов день………………………………………………………………….59
Блуд……………………………………………………………………………….68
Когда цветёт папоротник………………………………………………76
Бабье побоище……………………………………………………………..80
Стыд и срам варяжским женихам……………………………….93
Русская  женщина -  всегда  загадка……………………………..108














                Каширин  Сергей  Иванович
                Академик  Петровской  академии  наук  и  искусств
                Член  Союза  писателей  России,
                член  Международной  ассоциации  писателей
                баталистов  и   маринистов,
                Лауреат  Всесоюзной литературной премии им.Н.Островского,
                Всероссийской  премии  Святого  князя  Александра Невского,
                Международной  премии  «Филантроп»,
                Почетный  гражданин  города  Гдова.


















                Каширин  Сергей  Иванович
                ГДОВ  --  город  героических  ВДОВ
                Древнерусское  предание





                В  авторской  редакции
                Тираж  1000 экземпляров.
                Подписано  к  печати


Рецензии